पृष्ठ:संगीत विशारद.djvu/३२

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सङ्गीत गीत वाद्यं तथा नृत्यं त्रयं संगीतमुच्यते । ( सङ्गीत रत्नाकर ) गीत वाद्य और नृत्य यह तीनों मिलकर 'संगीत' कहलाते हैं वास्तव में यह तीनों कलायें ( गाना बजाना और नाचना ) एक दूसरे से स्वतन्त्र हैं, किन्तु स्वतन्त्र होते हुए भी गायन के अधीन वादन तथा वादन के अधीन नर्तन है। प्राचीनकाल में इन तीनों कलाओं के प्रयोग एक साथ ही अधिकतर हुआ करते थे। सङ्गीत शब्द गीत शब्द में 'सम्' उपसर्ग लगाकर बना है। सम यानी सहित और गीत यानी गायन। गायन के सहित अर्थात् अंगभूत क्रियाओं ( नृत्य ) एवं वादन के साथ किया हुआ कार्य संगीत कहलाता है। नृत्यं वाद्यानुगं प्रोक्तं वाद्यं गीतानुवृत्ति च । अतो गीत प्रधानत्वादत्राऽऽदाव भिधीयते ॥ “सङ्गीत रत्नाकर" अर्थात्-गायन के अधीन वादन और वादन के अधीन नर्तन है, अतः इन तीनों कलाओं में गायन को ही प्रधानता दी गई है। स्वर सङ्गीत में काम आने घाली वह आवाज़ जो मधुर हो, कानों को अच्छी लगे, जिसको सुनकर चित्त प्रसन्न हो, उसे स्वर कहते हैं । आगे जो २२ श्रुतियों का विवरण बताया गया है, उन्हीं में से ७ शुद्ध स्वर चुने गये हैं जिनके पूरे नाम यह हैं:-(१) षड़ज (२) ऋषभ (३) गान्धार ( ४ ) मध्यम (५) पंचम (६) धैवत (७) निषाद । इन्हें ही संक्षेप में सा रे ग म प ध नि कहते हैं। तीव्र और कोमल स्वर ऊपर बताये हुये ७ शुद्ध स्वर कहे जाते हैं, इनमें स और प यह तो "अचल" स्वर माने गये हैं क्योंकि यह अपनी जगह पर कायम रहते हैं, बाकी पांच स्वरों के दो-दो रूप कर दिये हैं क्योंकि यह अपनी जगह से हटते रहते हैं। अतः इन्हे विकारी स्वर भी कहते हैं। इन्हें कोमल, तीव्र इन नामों से पुकारते हैं। किसी स्वर की नियत आवाज को नीचे उतारने पर वह कोमल स्वर कहलाता है और कोई स्वर अपनी नियत आवाज से ऊँचा जाने पर तीव्र कहलाता है। रे, ग, ध, नि यह चारों स्वर जब अपनी जगह से नीचे हटते हैं तो कोमल बन जाते हैं और जब इन्हें ...फिर अपने नियत स्थान पर ऊपर पहंचा दिया जायगा तो इन्हें तीव्र या शद्ध कहेंगे।