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पृष्ठ:संगीत विशारद.djvu/३४

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  • सङ्गीत. विशारद * ..

।, हिन्दुस्थानी सङ्गीत प्रणाली को ही उत्तरी सङ्गीत पद्धति भी कहते हैं यह मद्रास प्रांत, मैसूर तथा आंध्र देश को छोड़ कर शेष समस्त भारत में प्रचलित है। - ६ वास्तव में इन दोनों सङ्गीत पद्धतियों के मूल सिद्धांतों में विशेष अन्तर नहीं है । इन दोनों पद्धतियों में जो समानता और भिन्नता है वह देखियेः समानता १-दोनों पद्धतियों में ही शुद्ध व विकृत मिलकर कुल १२ स्वर स्थान हैं । २-दोनों पद्धतियों में ही उपरोत्त १२ स्वरों से थाट उत्पत्ति होकर राग गाये बजाये जाते हैं। ३-दोनों पद्धतियों में पालाप गायन स्वीकार किया गया है। ४-दोनों में ही आलाप एवं तानों के साथ चीजें गाई जाती हैं। ५-जन्यजनक (थाट राग ) का सिद्धान्त दोनों में ही स्वीकार किया गया है । १-उत्तर सङ्गीत पद्धति में और दक्षिण सङ्गीत पद्धति में यद्यपि स्वर स्थान बारह ही माने __ गये हैं, किन्तु दोनों के स्वर तथा नामों में अन्तर है। २-उत्तर सङ्गीत पद्धति में केवल १० थाटों से रागों की उत्पत्ति हुई है, किन्तु दक्षिण पद्धति में ७२ जनक थाटों का प्रमाण मिलता है। ३-दक्षिण पद्धति की चीजें, कानड़ी, तेलगू, तामिल इत्यादि भाषाओं में रची हुई होती हैं और उत्तरी सङ्गीत पद्धति के गीत ब्रजभाषा, हिन्दी, उर्दू, पंजाबी, मारवाड़ी इत्यादि भापाओं में होते हैं। ४-दोनों पद्धतियों के ताल भिन्न होते हैं। ५-दोनों सङ्गीत पद्धतियों में स्वर उच्चारण एवं आवाज़ निकालने की शैलियां भिन्न भिन्न हैं। ६-इन पद्धतियों में राग अपने-अपने स्वतन्त्र हैं। अर्थात् दक्षिणी राग उत्तरी रागों से समानता नहीं रखते। ७-दक्षिण पद्धति की शुद्ध सप्तक को 'कनकांगी' अथवा मुखारी मेल कहते हैं, किन्तु उत्तरी सङ्गीत के शुद्ध स्वर सप्तक को 'बिलावल थाट' कहा गया है। उत्तरी और दक्षिणी स्वरों की तुलना कर्नाटक (दक्षिणी ) तथा हिन्दुस्तानी ( उत्तरी ) दोनों ही पद्धतियों में एक सप्तक में १२ स्वर माने गये हैं, किन्तु उनके नामों में कहीं-कहीं परिवर्तन हो गया है, जैसे