पृष्ठ:संगीत विशारद.djvu/४२

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  • सङ्गीत विशारद *

४१ वे सब श्रुतियों को समान मानते थे। उनकी पहली श्रुति से दूसरी श्रुति जितने फासले पर है उतना ही फासला उन्होंने समस्त श्रुतियों में रक्खा है। इसी फासले या अन्तर को "श्रुत्यांतर" कहते हैं। 'षड़ज ग्रामवीणा" पर भरत की श्रुतियांभरत का कहना है कि, ऐसी दो वीणा लेकर जिनमें सात-सात तार चढ़े हुये हों, षड़ज ग्राम में मिलाओ। दोनों वीणाओं में जो सात-सात तार चढ़े हुये हैं, उनको ७ स्वरों में मिलाने का ढङ्ग भरत इस प्रकार बताते है: षड़ज-यह स्वर चौथी श्रुति पर रहे। रिषभ- " सातवीं " गंधार- " नवीं " मध्यम तेरहवीं " पंचम सत्रहवीं " धैवत बीसवीं " निषाद- ” बाईसवीं " इस प्रकार की वीणा जो तैयार हुई, वह “षड़ज गाम की" "अचल वीणा" कही जायगी। इसके पश्चात् षड़ज गाम वाली इन दो वीणाओं में से एक वीणा लेकर उसका केवल पंचम का तार १ श्रुति कम करदो, और अन्य तारों को उसी प्रकार रहने दो अर्थात् इस वीणा का पंचम वाला तार १ श्रुति नीचा होगया, बाकी सा रे ग म ध नि यह ६ तार अपने-अपने स्थान पर कायम रहे। यह मध्यमग्राम वीणा कही जायगी। इसके बाद, इसी वीणा के शेष ६ तारों को भी एक-एक श्रुति कम कर दो, तो यह "चलवीणा" कही जायगी। इस चल वीणा पर स्वरों की स्थिति इस प्रकार हो जायगी: स्वर- सा. रे ग म प ध नि श्रुति नं०-३ ६ ८ १२ १६ १६ २१ अर्थात् उपरोक्त सातों स्वर क्रमशः तीसरी, छटी, आठवीं, बारहवीं, सोलहवीं, उन्नीसवीं और इक्कीसवीं श्रुति पर पहुँच गये। ऐसा होने से यह स्पष्ट है कि पहिली षड़जगाम वीणा या 'अचल वीणा' से चलवीणा के सातों स्वरों में एक अति का अन्तर होगया । इसके पश्चात् भरत लिखते हैं कि चलवीणा के पंचम को फिर एक श्रुति से कम करदो, और उसी प्रकार शेप ६ स्वरों को भी एक-एक श्रुति नीचे करदो तो स्वरों की स्थिति इस प्रकार हो जायगी।