पृष्ठ:संगीत विशारद.djvu/४३

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  • सङ्गीत विशारद *

सा रे ग म प व नि २ ५ ७ ११ १५ १८२० ऐसा होने से चलवीणा के ग और नि जोकि ७ और २० नम्बर की श्रुतियों पर स्थिति हैं, अचल वीणा के रे और व से मिलने लगेंगे क्योंकि अचल वीणा के रे-च भी क्रमश ७ और २० नम्बर की अतियों पर स्थित है। इसका अर्थ यह हुआ कि चलवीणा और अचल वीणा के स्वरो में २ श्रुतियों का अन्त हो गया। इसी प्रकार भरत ने चलवीणा के स्वरो को १-१ अति कम करके धागे और बताया है, इसमे यह सिद्ध होता है कि, उनकी अतिया परस्पर समानता रमती थीं, क्योकि यदि उनके आपमी-फासले कम या ज्यादा होते तो "अचल वीणा" का उपरोक्त स्वर निर्देशन सम्भर ही नहीं था। भरत के इसी सिद्धात अर्थात् "समान श्रुत्यान्तर" को शाङ्ग देव भी मानते हैं। इसके विरुद्ध मध्यकालीन विद्वानों ने श्रुतिया तो एक सप्तक मे २२ ही मानी हैं, किंतु वे "समान श्रुत्यान्तर" वाले सिद्धात को स्वीकार नहीं करते। १४ वीं सदी से १८ वीं शताब्दी तक के मध्यकालीन विद्वानों में मुग्य चार विद्वानों के सङ्गीत-ग्रन्थ उल्लेखनीय हैं। (१) रागतरगिणी-यह ग्रन्थ लोचनकवि ने १५वी शताब्दी के प्रारभ मे लिखा। (0) मगीत पारिजात—यह ग्रन्थ ५० अहोवल ने १७ वी शताब्दी के पूर्वार्ध मे लिसा। (३) हृदय कौतुक और हृदयप्रकाश यह दोनों प्रथ हृदय नारायण देव ने १७ वी शताब्दी के उत्तरार्ध में लिये। (४) राग तत्व विवोध-१८ वीं शताटी के पूर्वार्ध में यह अथ श्रीनिवास पडित ने लिसा । वीणा के तार पर १२ स्वरो के स्थान निश्चित करने का सर्व प्रथम प्रयास "सङ्गीत पारिजात" के लेसक अहोवल पण्डित ने किया, इसके बाद हृदय नारायण और श्री निवास ने भी वीणा के तार पर सरों की स्थापना अहोचल के अनुसार ही की है। ___यद्यपि मध्यकालीन विद्वान "चतुश्चतुश्चतुश्चैव " वाले श्लोक के अनुसार सात स्वरों का विभाजन २२ श्रुतियों पर स्वीकार करते हैं, तथा प्राचीन पण्डितों के अनुसार ही उन्होंने भी प्रत्येक शुद्ध स्वर को उस स्वर की अन्तिम श्रुति पर स्थित किया है, किन्तु प्राचीन और मध्यकालीन विद्वानों में श्रुतियों के ममान अतर पर मत भेद है। अाधुनिक ग्रन्थकारों की श्रुतियां उपर बताये हुए प्राचीन और मध्यकालीन प्रयकारों के विवेचन द्वारा यह बताया जा चुका है कि इन्होंने अपना प्रत्येक शुद्ध खर अन्तिम श्रुति पर, निश्चित किया है