पृष्ठ:संगीत विशारद.djvu/८१

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  • संगीत विशारद *

अर्थात्-ध्वनि की वह विशिष्ट रचना जिसमे स्वर तथा वर्णो के कारण सोन्दर्य होता है, जो मनुष्य के चित्त का रजन करे यानी जो श्रोताओ के मन को प्रसन्न करे धुद्विमान लोग उसे “राग" कहते हैं। राग में निम्नलिखित बातों का होना जरूरी है:(१) राग किमी याट से उत्पन्न होना चाहिए। (0) ध्वनि (आवाज) की एक विशेप रचना हो । (३) उसमे स्वर तथा वर्ण हो । (४) रजकता यानी सुन्दरता हो । (५) राग में कम से कम ५ स्वर अवश्य होने चाहिये । (६)*राग में एक ही स्वर के दो रूप पास-पास लेने को शास्त्रकारी ने निषेध किया है। जैसे- ग या म में इत्यादि। (७) राग में प्रारोह तथा अवरोह का होना आवश्यक है। क्योंकि इनके विना राग का रुप पहिचाना नहीं जा सकता। (८) किसी भी राग में पडज ( सा ) स्वर वर्जित नहीं होता। (८) मध्यम और पचम यह दो स्वर एक माथ तथा एक ही समय कभी भी वर्जित नहीं होते। (१०) राग मे वादी-सम्बादी स्वर अवश्य रहते हैं, इन स्वरो पर ही विशेष जोर रहता है। रागों की जाति-- पहिले यह बताया जा चुका है कि थाट के ७ स्वरो मे मे ही राग तैयार होते हैं, ओर यह भी बताया गया था कि थाट मे ७ स्वर होने जरूरी है, किन्तु राग मे यह जरूरी नहीं कि ७ ही स्वर हों, अत किसी थाट के ७ स्वरों में से ५-६ या ७ स्वरों को लेकर जय कोई राग तैयार किया जाता है, तो जितने सर उस थाट मे से लिये गये हो, उसी आधार पर उनकी जाति निश्चित की जाती है। इस प्रकार स्वरी की मरया के अनुसार रागों के ३ भेद माने गये हैं जिन्हे औडव, पाडव और सम्पूर्ण कहते है - (१) श्रीडव राग-जब किसी थाट में से कोई मे दो सर घटाकर (वर्जित करके) कोई राग उत्पन्न होता है अर्थात् जिस राग में ५ स्वर लगते हैं उसे

  • नोट-नियम न ६ के विरुद्ध कुछ राग ऐसे भी हैं जिनमें एक ही म्वर के दो रूप पाम पास थाजाते हैं, जैसे-ललित निहाग, केटार इत्यादि। किन्तु इन्हें इस नियम के अपनाट स्वरूप समझना चाहिये ।