पृष्ठ:संगीत विशारद.djvu/९०

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  • सङ्गीत विशारद *

६३ लिया जावे, बल्कि इनके अन्दर जो रहस्य छिपा हुआ है, उस पर ध्यान देकर ही प्राचीन मूर्च्छनाओं की उपयोगिता जानी जा सकती है। वह रहस्य क्या है, यह नीचे के उदाहरणों से भली प्रकार जाना जा सकता है । जिस प्रकार हमारे यहां रागों की उत्पत्ति थाटों से हुई है, उसी प्रकार प्राचीन ग्रन्थों में मूर्च्छनाओं के द्वारा भिन्न-भिन्न राग उत्पन्न करके बताये हैं। प्राचीन ग्रन्थकार अपने किसी राग का वर्णन करते समय यह नहीं कहते थे कि इसमें अमुक स्वर तीव्र या कोमल हैं बल्कि वे कहते थे कि इस राग में अमुक मूर्च्छना है । उदाहरणार्थः षड़जग्राम की पहली मूर्च्छना "उत्तरामन्द्रा” को लीजिये, इसमें सा, रे, ग, म, प, ध, नि, यह सात शुद्ध स्वर हैं । आजकल की बोलचाल में हम इसे अपना शुद्ध ठाठ 'बिलावल' कहेंगे और इसी बिलावल ठाठ के अन्तर्गत जब किसी राग में शुद्ध स्वर प्रयुक्त होंगे, जैसे 'गुणकली' तो हम कहेंगे कि गुणकली में सब शुद्ध स्वर लगते है और यह बिलावल ठाठ का राग है। किन्तु ऐसे राग का वर्णन करते समय प्राचीन ग्रन्थकार कहेगे कि गुणकली में षड़ज गाम की पहली मूर्च्छना है। अब दूसरी मूर्च्छना लीजिये, जिसका नाम 'रजनी' है । ध्यान दीजिये प्रथम मूर्च्छना ( उत्तरामन्द्रा ) के षड़ज स्वर पर इसका निषाद है, रिषभ पर इसका षड़ज है, गांधार पर इसका रिषभ है एवं इसी क्रम से उसके म प ध नि स्वरों पर इस मूर्च्छना के ग म प ध स्वर हैं, तो पहली मूर्च्छना के रिषभ को दूसरी मूर्च्छना में षड़ज स्वर मानकर हमने स्वर खींचे तो नतीजा क्या हुआ ? सा रे ग म प ध नि-पहली मुर्छना __ नि सा रे ग म प ध-दूसरी मूर्च्छना नतीजा यह हुआ कि इस प्रयोग से हमें दूसरी मूर्च्छना में निषाद और गन्धार कोमल मिल गये और चूँकि रिषभ स्वर को षडज मानकर यह मूर्च्छना निकली है, इसलिये ग्रन्थकार इसे 'रिषभ को मूर्च्छना' या 'रजनी' इन नामों से सम्बोधित करेंगे और हम अपनी भाषा में इस दूसरी मूछना को 'काफी ठाठ' कहेंगे; क्योंकि इसमें हमें ग नि कोमल स्वर प्राप्त हुए हैं। ___इसी प्रकार तीसरी मूर्च्छना ( उत्तरायता ) में सब स्वरों की स्थिति कोमल होजायगी क्योंकि पहली मूर्च्छना ( उत्तरामन्द्रा ) के गन्धार को इसमें षड़ज माना गया है: सा रे ग म प ध नि-पहली मूर्च्छना ध नि सा रे ग म प-तीसरी मूर्च्छना इस प्रकार के कोमल स्वर जब हमारी किसी रचना में आयेंगे तो हम उसे भैरवी थाट का राग ही तो कहेंगे; किन्तु प्राचीन ग्रन्थकारों की भाषा में ऐसे राग को गन्धार की मूर्च्छना का राग कहा जायगा, क्योंकि इसमें शुद्ध गंधार को स्वर मानकर तीसरी मुर्छना निकाली गई थी। अथवा वे इसे "उत्तरायता" की मूर्च्छना का राग कहेंगे।