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दूसरा अङ्क

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तुम्हारी कैसे खिदमत करूं।

राजे०--मुझे इसी बंगलेमें रहना होगा?

सबल--ऐसा होता तो क्या पूछना था, पर यहां बखेड़ा है, बदनामी होगी। मैं आज ही शहरमें एक अच्छा मकान ठीक कर लूंगा। सब सामान वहीं हो जायगा।

राजे०--(प्रेम कटाक्षसे देखकर) प्रेम करते हो और बदनामीसे डरते हो। यह कच्चा प्रेम है।

सबल--(झेंपकर) अभी नया रंगरूट हूँ न।

राजे०--(सजल नेत्रोंसे) मैंने अपना सर्बस आपको दे दिया। अब मेरी लाज आपके हाथ है।

सबल--(उसके दोनों हाथ पकड़ कर तस्कीन देते हुए) राजेश्वरी, मैं तुम्हारी इस कृपाको कभी न भूलूँगा। मुझे भी आजसे अपना सेवक, अपना चाकर जो चाहे समझो।

राजे०--(मुसकिरा कर) आदमी अपने सेवककी सरन नहीं जाता, अपने स्वामी की सरन आता है। मालूम नहीं आप मेरे मनके भावोंको जानते हैं या नहीं, पर ईश्वरने आपको इतनी विद्या और बुद्धि दी है, आपसे कैसे छिपा रह सकता है। मैं आपके प्रेम, केवल आपके प्रेमके वश होकर आई हूँ। पहली बार जब आपकी निगाह मुझपर पड़ी तो उसने मुझपर मन्त्रसा फूँक दिया। मुझे इस में प्रेमकी झलक दिखाई दी। तभीसे मैं