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संग्राम

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गुलाबी--अब मेरा किया नहीं होता।

भृगु--तो मुझे परदेस जाने दो। यहाँ मेरा किया कुछ न होगा।

गुलाबी--आखिर मुनीबीमें तुझे कुछ मिलता है कि नहीं। वह सब कहाँ उड़ा देता है?

भृगु--कसम ले लो जो इधर तीन महीनेमें कौड़ीसे भेंट हुई हो। जबसे ओले पड़े हैं, ठाकुर साहबने लेन देन सब बन्द कर दिया है।

गुलाबी--तेरी मारफ़त बाजारसे सौदा सुलुफ़ आता है कि नहीं। घरमें जिस चीजका काम पड़ता है वह मैं तुझी से मंगबानेको कहती हूँ। पांच-छ सौका सौदा तो भीतर ही का आता होगा। तू उसमें कुछ काटपेच नहीं करता?

भृगु--मुझे तो अम्मां यह सब कुछ नहीं आता।

गुलाबी--चल झूठे कहीं के। मेरे सौदेमें तो तू अपनी चाल चल ही जाता है वहां न चलेगा। दस्तूरी पाता है, भावमें कसता है, तौलमें कसता है। उसपर मुझसे उड़ने चला है। सुनती हूँ दलाली भी करते हो। यह सब कहां उड़ जाता है?

भृगु--अम्मा किसीने तुमसे झूठमूठ कह दिया होगा। तुम्हारा सरल स्वभाव है, जिसने जो कुछ कह दिया वही मान जाती हो। तुम्हारे चरण छूकर कहता हूँ जो कभी दलालीकी