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संग्राम

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कफ़को कौड़ी पास न रखता दिलका बड़ा नवाबी है।
जो कुछ पाता सभी उड़ाता घरकी अजब खराबी है।
लोटा थाली गिरवी रख दी, फिरता लिये रिकाबी है।
बात बातपर आंख बदलता, इतना बड़ा मिजाजी है।
एक हाथमें दोना कुल्हड़, दूजे बोलत गुलाबी है।

पहला डाकू—कौन है, खड़ा।

हलधर—तुम तो ऐसा डपट रहे हो जैसे मैं कोई चोर हूँ। काहो क्या कहते हो?

दूसरा डाकू—(साथियोंसे) जवान तो बड़ा गठीला और जीवटका है। (हलधरसे) किधर चले? घर कहां है?

हलधर—यह सब आल्हा पूछकर क्या करोगे? अपना मतलब कहो।

तीसरा डाकू—हम पुलिस के आदमी हैं, बिना तलासी लिये किसीको जाने नहीं देते।

हलधर—(चौकन्ना होकर) यहाँ क्या धरा है जो तलाशीको धमकाते हो। धनके नाते यही लाठी है और इसे मैं बिना दस पांच सिर फोड़े दे नहीं सकता।

चौथा—तुम समझ गये हम लोग कौन हैं या नहीं?

हलधर—ऐसा क्या निरा बुद्धू ही समझ लिया है।

चौथा—तो गाँठमें जो कुछ हो दे दो, नाहक रार क्यों