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संग्राम

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पर दयाकी चोट सिरको नीचा कर देती है, इससे मनुष्यकी आत्मा और भी निर्बल हो जाती है, उसके अभिमानका अन्त हो जाता है, वह नीच कुटिल, खुशामदी हो जाता है। मैं तुमसे फिर पूछता हूँ तुममें कुछ लज्जाका भाव है या नहीं?

एक किसान—महाराज अगर आपका ही कहना ठीक हो तो हम क्या कर सकते हैं। ऐसे दयावान पुरुषकी बुराई हमसे न होगी! औरत आप ही खराब हो तो कोई क्या करे?

मंगरू—बस तुमने मेरे मनकी बात कही।

हरदास—वह सदासे हमारी परवरिस करते आये हैं। हम आज उनसे बागी कैसे हो जायें?

दूसरा किसान—बागी हो भी जायें तो रहें कहां। हम तो उसकी मुट्ठीमें हैं। जब चाहे हमें पीस डाले। पुस्तैनी अदावत हो जायगी।

मंगरू—अपनी लाज तो ढांकते नहीं बनती, दूसरोंकी लाज कोई क्या ढांकेगा।

हरदास—स्वामीजी आप संन्यासी हैं, आप सब कुछ कर सकते हैं। हम गृहस्थ लोग जमींदारोंसे बिगाड़ करने लगें तो कहीं ठिकाना न लगे।

मंगरू—हां और क्या, आप तो अपने तपोबलसे ही जो चाहें कर सकते हैं। अगर आप सराप दे दें तो कुकर्मी