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तीसरा अङ्क

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दूसरोंकी आंख पड़नेके पहले तुम मेरी हो जाती फिर कोई तुम्हारी ओर आंख उठाकर भी न देख सकता। पर तुम मुझे उस वक्त मिली जब तुम्हारी ओर प्रेमकी दृष्टिसे देखना भी मेरे लिये अधर्म हो गया। राजेश्वरी, मैं महापापी, अधर्मी जीव हूं। मुझे यहां इस एकान्तमें बैठनेका, तुमसे ऐसी बातें करनेका अधिकार नहीं है। पर प्रेमघातने मुझे संज्ञाहीन कर दिया है। मेरा विवेक लुप्त हो गया है। मेरे इतने दिनका ब्रह्मचर्य्य और धर्मनिष्ठाका अपहरण होगया है। इसका परिणाम कितना भयङ्कर होगा ईश्वर ही जाने। अब यहां मेरा बैठना उचित नहीं है। मुझे जाने दो (उठ खड़ा होता है।)

राजेश्वरी—(हाथ पकड़कर) न जाने पाइयेगा। जब इस धर्म अधर्मका पचड़ा छेड़ा है तो उसका निपटारा किये जाइये। मैं तो समझती थी जैसे जगन्नाथपुरीमें पहुँचकर छूता-छूतका विचार नहीं रहता उसी भांति प्रेमकी दीक्षा पानेके बाद धर्म अधर्मका विचार नहीं रहता। प्रेम आदमीको पागल कर देता है। पागल आदमीके काम और बातका विचार और व्यवहारका कोई ठिकाना नहीं।

कंचन—इस विचारसे चित्तको संतोष नहीं होता। मुझे अब जाने दो। अब और परीक्षामें मत डालो।

राजे०—अच्छा बतलाते जाइये कबआइयेगा?