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संग्राम

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कंचन—कुछ नहीं जानता क्या होगा। (रोते हुए) मेरे अपराध क्षमा करना।

(जीनेसे उतरता है। द्वारपर सबलसिंह आते दिखाई देते हैं।
कंचन एक अंधेरे बरामदेमें छिप जाता है।)

सबल—(ऊपर जाकर) अरे! अभी तक तुम सोईं नहीं?

राजे०—जिन आंखोंमें प्रेम बसता है वहाँ नींद कहां।

सबल—यह उन्निद्रा प्रेममें नहीं होती। कपट प्रेममें होती है।

राजे०—(सशंक होकर) मुझे तो इसका कभी अनुभव नहीं हुआ। आपने इस समय आकर बड़ी कृपा की।

सबल—(क्रोधसे) अभी यहां कौन बैठा हुआ था?

राजे०—आपकी याद।

सबल-मुभे भ्रम था कि याद सदेह नहीं हुआ करती। आज यह नयी बात मालूम हुई। मैं तुमसे विनय करता हूँ बतला दो अभी कौन यहांसे उठकर गया है।

राजे०—आपने देखा है तो क्यों पूछते हैं?

सबल—शायद मुझे भ्रम हुआ हो।

राजे०—ठाकुर कंचनसिंह थे।

सबल—तो मेरा गुमान ठीक निकला। वह क्या करने आया था?

राजे०—(मनमें) मालूम होता है मेरा मनोरथ उससे जल्द