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संग्राम

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अर्पण है। प्रेम अपना पूरा मूल्य चाहता है, आधेपर संतुष्ट नहीं हो सकता।

राजे०—मैं अपने सतको नहीं खो सकती।

सबल—प्रिये प्रेमके आगे सत, व्रत, नियम, धर्म सब उस तिनकेके समान हैं जो हवासे उड़ जाते हैं। प्रेम पवन नहीं, आँधी है। उसके सामने मान-मर्य्यादा, शर्म-हयाकी कोई हस्ती नहीं।

राजे०—यह प्रेम परमात्माकी देन है। उसे आप धन और रोबसे नहीं पा सकते।

सबल—राजेश्वरी, इन बातोंसे मेरा हृदय चूर-चूर हुआ जाता है। मैं ईश्वरको साक्षी देकर कहता हूं कि मुझे तुमसे जितना अटल प्रेम है उसे मैं शब्दोंमें प्रगट नहीं कर सकता। मेरा सत्यानास हो जाय अगर धन और सम्पत्तिका ध्यान भी मुझे आया हो। मैं यह मानता हूं कि मैंने तुम्हें पानेके लिये बेजा दबावसे काम लिया पर इसका कारण यही था कि मेरे पास और कोई साधन न था। मैं विरहकी आगमें जल रहा था, मेरा हृदय फुंका जाता था, ऐसी अवस्थामें यदि मैं धर्म अधर्मका विचार न करके किसी व्यक्तिके भरे हुए पानीके डोलकी ओर लपका तो तुम्हें उसको क्षम्य समझना चाहिये।

राजे०—वह डोल किसी भक्तने अपने इष्टदेवको चढ़ानेके