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संग्राम

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कितनी घोर निर्दयता है। हाय! मैं क्या जानता था कि राजेश्वरी मनमें मेरे अनिष्टका दृढ़ संकल्प करके यहां आई है। मैं क्या जानता था कि वह मेरे साथ त्रिया चरित्र खेल रही है। हां, एक अमूल्य अनुभव प्राप्त हुआ। स्त्री अपने सतीत्वकी रक्षा करने के लिये, अपने अपमानका बदला लेनेके लिये, कितना भयङ्कर रूप धारण कर सकती है। गऊ कितनी सीधी होती है पर किसीको अपने बछड़े के पास आते देखकर कितनी सतर्क हो जाती है। सती स्त्रियां भी अपने व्रतपर आघात होते देखकर जानपर खेल जाती हैं। कैसे प्रेममें सनी हुई बातें करती थी। जान पड़ता था प्रेमके हाथों बिक गई हो। ऐसी सुन्दरी, ऐसी सरला, ऐसी मृदु प्रकृति, ऐसी विनयशीला, ऐसी कोमल हृदया रमणियाँ भी छल-कौशलमें इतनी निपुण हो सकती हैं!

उसकी निठुरता मैं सह सकता था। किन्तु ज्ञानीकी घृणा नहीं सही जाती, उसकी उपेक्षासूचक दृष्टि के सम्मुख खड़ा नहीं हो सकता। जिस स्त्रीका अबतक आराध्य देव था, जिसकी मुझपर अखण्ड भक्ति थी, जिसका सर्वस्व मुझपर अर्पण था, वही स्त्री अब मुझे इतना नीच और पतित समझ रही है। ऐसे जीनेपर धिक्कार है।

एक बार प्यारे अचलको भी देख लूं। बेटा, तुम्हारे प्रति मेरे दिलमें बड़े-बड़े अरमान थे। मैं तुम्हारा चरित्र आदर्श