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संग्राम

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राजेश्वरी—(मनमें) इन्होंने अवश्य कुछ खा लिया। आंखें पथराई जाती हैं, पसीना निकल रहा है। निराशा और लज्जाने अन्तमें इनकी जान ही लेकर छोड़ी; मैं इनकी प्राणघातिका हूं। मेरे ही करण इस देवीकी जान जा रही है। इसे मार्य्याद-पालन कहते हैं। एक मैं हूँ कि कष्ट और अपमान भोगनेके लिये बैठी हूँ। नहीं, देवी, मुझे भी साथ लेती चलो। तुम्हारे साथ मेरी भी लाज रह जायगी। तुम्हें ईश्वरने क्या नहीं दिया। दूध, पूत, मान, महातम सभी कुछ तो है। पर केवल पतिके पतित हो जानेके कारण तुम अपने प्राण त्याग रही हो। तो मैं जिसका आंसू पोंछनेवाला भी कोई नहीं कौनसा सुख भोगने के लिये बैठी रहूँ।

ज्ञानी—(सचेत होकर) पानी, पानी।

राजे०—(कटोरेमें पानी देती हुई) पी लीजिये।

ज्ञानी—(राजेश्वरीको ध्यानसे देखकर) नहीं रहने दो। पतिदेवके दर्शन कैसे पाऊँ। मेरे मरनेका हाल सुनकर उन्हें बहुत दुःख होगा। राजेश्वरी, उन्हें मुझसे बहुत प्रेम है। इधर वह मुझसे इतने लज्जित थे कि मेरी तरफ सीधी आँखसे ताक भी न सकते थे। (फिर अचेत हो जाती है)

राजे०—(मनमें) भगवन्, अब यह शोक देखा नहीं जाता। कोई और स्त्री होती तो मेरे खूनकी प्यासी हो जाती। इस