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पांचवां अङ्क

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देवीके हृदयमें कितनी दया है। मुझे इतनी नीची समझती है कि मेरे हाथ का पानी भी नहीं पीती, पर व्यवहार में कितनी भलमन्साहत है। मैं ऐसी दयाकी मूरतकी घातिका हूँ। मेरा क्या अन्त होगा!

ज्ञानी—हाय, पुत्रलालसा! तूने मेरा सर्वनाश कर दिया। गजेश्वरी, साधुओं का भेस देवकर धोखेमें न आ जाना। (आँखें बन्द कर लेती है)

राजे०—कभी किसी साधुने इसे जटकर रास्ता लिया होगा। वही सुध आ रही है तुम तो चली, मेरे लिये कौन रास्ता है। वह डाकू ही हो गये हैं। अबतक सबल सिंहके भयसे इधर न आते थे। अब वह मुझे कब जीता छोड़ेंगे। न जाने क्या-क्या दुर्गति करें। मैं जीना भी तो नहीं चाहनी। मन, अब संसार की मायामोह छोड़ो। संसारमें तुम्हारे लिये अब जगह नहीं है। हां! यही करना था तो पहले ही क्यों न किया। तीन प्राणियों- की जान लेकर तब यह सूझी। कदाचित् तब मुझे मौतसे इतना डर न लगता। अब तो जमराजका ध्यान आते ही रोयें खड़े हो जाते हैं। पर यहां की दुर्दशासे वहांकी दुर्दशा तो अच्छी। कोई हसनेवाला तो न होगा।

(रस्सीका फन्दा बनाकर छतसे लटका देती है)

बस, एक झटके में काम तमाम हो जायगा। इतनीसी जानके