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संग्राम

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हलधर—ज्ञानी हैं क्या?

राजे०—सबलका दर्शन पानेकी आशासे यहाँ आई थीं, किन्तु बिचारीकी लालसा मनमें रही जाती है। न जाने उनकी क्या गत हुई? हलधर—मैं अभी उन्हें लाता हूं।

राजे०—क्या अभी वह ......

हलधर—हाँ, उन्होंने प्राण देना चाहा था, पिस्तौलका निशाना छातीपर लगा लिया था, पर मैं पहुँच गया और उनके हाथसे पिस्तौल छीन ली। दोनों भाई वहीं हैं। तुम इनके मुँहपर पानी के छींटे देती रहना। गुलाबजल तो रखा ही होगा, उसे इनके मुँहमें टपकाना, मैं अभी आता हूँ।

(जल्दीसे चला जाता है)

राजे०—(मनमें) मैं समझती थी इनका स्वरूप बदल गया होगा। दया नामकी भी न रही होगी। नित्य डाका मारते होंगे, आचरन भ्रष्ट हो गया होगा। पर इनकी आंखोंमें तो दयाकी जोत झलकती हुई दिखाई देती है। न जाने कैसे दोनों भाइयों- की जान बचा ली। कोई दूसरा होता तो उनकी घातमें लगा रहता और अवसर पाते ही प्राण ले लेता। पर इन्होंने उन्हें मौत के मुँहमेंसे निकाल लिया। क्या ईश्वरकी लीला है कि एक हाथसे विष पिलाते हैं और दूसरे हाथसे अमृत। मुझीको कौन