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संग्राम

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(भोजन करने बैठता है)

चम्पा—(भृगुसे) कुछ और लेना हो तो लेलो, मैं जाती हूँ अम्माँका बिछावन बिछाने।

गुलाबी—रहने दो बेटी, मैं आप बिछा लूंगी।

भृगु—(चम्पासे) यह आज दालमें नमक क्यों झोंक दिया। नित्य यही काम करती हो फिर भी तमीज नहीं आती।

चम्पा—ज्यादा हो गया, हाथ ही तो है।

भृगु—शर्म नहीं आती ऊपरसे हेंकड़ी करती हो।

गुलाबी—जाने दो बेटा, अन्दाज न मिला होगा। मैं तो रसोई बनाते-बनाते बुड्ढी हो गई लेकिन कभी-कभी निमक घट बढ़ जाता ही है।

भृगु—(मनमें) अम्मां आज क्यों इतनी मुलायम हो गई हैं। शायद ठाकुरोंका पतन देखके इनकी आँखें खुल गई हैं। यह अगर इसी तरह प्यारसे बातें करें तो हमलोग तो इनके चरण धो-धोकर पियें। (प्रगट) मैं तो किसी तरह खा लूंगा पर तुम तो न खा सकोगी।

गुलाबी—खा लिया बेटा, एक दिन जरा नमक ज्यादा ही सही। देखो बेटी, खा-पीकर आरामसे सो रहना, मेरा बदन दाबने मत आना। रात अधिक गई है।

चम्पा—(मनमें) आज तो ऐसा जी चाहता है कि इनके