पृष्ठ:संग्राम.pdf/८३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
संग्राम

६८

कोई हानि नहीं है।

अचल--जी हाँ, मुझे यह मालूम है; मैं तो यहाँतक मानता हूं कि एक मनुष्यको अपने दूसरे भाईसे सेवा टहल करानेका कोई अधिकार ही नहीं है। यहाँतक कि साबरमती आश्रममें लोग अपने हाथों अपना चौका लगाते हैं, अपने बर्तन माँजते हैं और अपने कपड़ेतक धो लेते हैं। मुझे इसमें कोई उग्र या इनकार नहीं है, मगर तब आप ही कहने लगेंगे बदनामी होती है, शर्मकी बात है, और अम्मांजीकी तो नाक ही कटने लगेगी। मैं जानता हूँ नौकरोंके अधीन होना अच्छी आदत नहीं है। अभी कल ही हम लोग कण्व स्थान गये थे। हमारे मास्टर थे और १५ लड़के। ११ बजे दिनको धूपमें चले। छतरी किसीके पास नहीं रहने दी गई। हाँ, लोटा-डोर साथ था। कोई १ बजे वहां पहुंचे। कुछ देर पेड़के नीचे दम लिया। तब तालाबमें स्नान किया। भोजन बनानेकी ठहरी। घरसे कोई भोजन करके नहीं गया था। फिर क्या था, कोई गांवसे जिंस लाने दौड़ा, कोई उपले बटोरने लगा, दो तीन लड़के पेड़ोंपर चढ़कर लकड़ी तोड़ लाये, कुम्हारके घरसे हांडियां और घड़े आये। पत्तोंके पत्तल हमने खुद बनाये। आलुका भर्ता भौर बाटियाँ बनाई गई। खाते पकाते चार बज गये। घर लौटनेकी ठहरी। ६ बजते-बजते यहाँ आ पहुँचे। मैंने खुद पानी खींचा, खुद उपले