पृष्ठ:संत काव्य.pdf/१६

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जातियाँ अपनी-अपनी सभ्यता एवं संस्कृति को साथ लिये हुए क्रमश: एक दूसरे के अधिकाधिक संपर्क में आती जा रही हैं। उनकी रहन- सहन, वेश-भूषा एवं विचार-पद्धतियों तक में कुछ न कुछ परिवर्तन होते जा रहे हैं। और उनकी साहित्यिक रुचि पर भी इसका प्रभाव पड़ता जा रहा है। भिन्न-भिन्न परिभाषाओं के उक्त समन्वय संबंधी प्रयास का एक यह भी बहुत बड़ा कारण है किसी काव्य की रचना करते समय अब उसके रचयिता का अधिक व्यापक दृष्टि से विचार करना स्वाभाविक हो गया है। अब केवल उसी काव्यकृति का समाज में अधिक स्वागत होना संभव है जो जन सामान्य की रुचि को भी अधिक से अधिक संतुष्ट करने में समर्थ हो। वैसे काव्य अब कभी चिरस्थायी नहीं हो सकते जो केवल व्यक्तिगत 'यश' वा अर्थ' की अभिलाषा से किसी ऐश्वर्यशाली पुरुष की छत्र-छाया में रचे गये हों और जो केवल भाषाविषयक बाह्य विशेषताओं का ही प्रदर्शन करते हों। सच्चे काव्य का मूल्यांकन अब उसके केवल मनोरंजन मात्र होने में ही नहीं, अपितु उस विषय की व्यापकता, उसके उद्देश्य की महानता तथा उसकी उस शक्ति के आधार पर ही होगा जिससे वह अधिकाधिक जनहृदय के मर्मस्थल को स्पर्श भी कर सकता हो। भाषा वा शैलीगत सौंदर्य अथवा व्यक्तिगत विशेषताओं को इसी कारण, क्रमशः गौण स्थान दिया जाने लगा है और विषय का महत्व ही आजकल उसका प्रधान लक्ष्य समझा जाने लगा है।[१]

किसी काव्य में प्रधानतः दो बातें देखने में आती हैं। उनमें से एक का संबंध उसके विषय से होता है और दूसरी का उसकी भाषा के साथ रहा करता है। भाषा की दृष्टि से उसकी उत्कृष्टता प्रायः


  1. तुलनीय– It may be quite true that fine and telling rhythms without substance (substance of idea, suggestion, feeling) are hardly poetry at all, even if they make good verse. Letters of Sri Aurobindo (Third Series), p. 11.