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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/२२०

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प्रारंभिक युग

यहु मन पटक पछाड़ि लै, सब आपा मिट जाइ।
पंगुल ह्वै पिव पिव करें, पीछैं काल न खाई॥८१॥
कबीर सुपिनैं हरि मिल्या, सूतां लिया जगाइ।
आंखि न मीचौं डरपत, मति सुपिना ह्वै जाइ॥८२॥
कबीर केसौ को दया, सँसा वाल्या खोइ।
जे दिन गये भगति बिन, ते दिन सालैं मोहि॥८३॥
कस्तूरी कुंडलि बसै, मृग ढूंढे बन मांहि।
ऐसें घटि घटि राम है, दुनिया देखैं नाहिं॥८४॥
निंदक नेड़ा राखिये, आंगणि कुटी बंबाइ।
बिन साबण पाणी बिना, निरमल करै सुभाइ॥८५॥

७३. भजै = स्मरण रखते हैं। भजे = स्मरण करता। ७४. बार = बारी, अवसर। १७५. बाढ़ी = बढ़ई। डोलन लाग = काँपने लगा।...भाग = पक्षी तू अपने घर भाग जा। ७६. ऊंची.... यांहि = जो ऊंची डालों की पत्तियाँ अभी तक हरी हैं वे भी पीली पड़ जायंगी। ७७. आँथवै = अस्त हो जाता है। चिणिया = चुन कर उठाया गया रहता है। ७८. वार षटीक कै = वधिक के द्वार पर। आव = आयु ८०. हम जाए = हमें उत्पन्न किया। वंध्याभार = गट्ठर बांध कर चलने को तैय्यार हैं। ८१. पंगुल = अशक्त। ८२. सूतां = अज्ञानावस्था में हो, अचानक। मति = कहीं न। ८४. कुंडलि = नाभि में। ८५. गणि...बधाई = अपने यहां चादर के साथ। दिन...बिना = बिना किसी बाह्य साधन के ही। सुभाइ = स्वभाव।

कबीर आप ठगाइये, और न ठगिये कोइ।
आप ठग्यां सुख ऊपजै, और ठग्यां दुःख होई॥८६॥
ज्यूं मन मेरा तुझसौं, यौं जे तेरा होइ।
ताता लोहा यौं मिलै, संधि न लखई कोई॥८७॥
कबीर गरबु न कीजियै, रंकु न हंसियै कोइ।
अजहुं सुनाउ समंद महि, क्या जानै क्या होई॥८८॥