पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३४३

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३३० संतदाव्य आत्मानुभूति की दशा (२) आरतमअनुभव-रीति वहीं री है। मौर बनाय निज रूथ अभ पड़ा, लिच्छन रुचि हर लेग धरी थे। दोप सनाह सूर को बानो, एकतारी चोरी पहिी रो। सत्ता थल में मोह बिदरत, ए ए सुरजन सुह निसरी री। केबल कंवला अपछर क्र, गान हरे रसरंगभी री। जीतनिसान बजरी बिरा, आनंदघन सर्ब न धरी री । वरी-=ग्रहण की। लिच्छन . . .तोत्र =इच्छा की तलवार धारण कर ली है ।एकतारी... पहिी=एक तार को चोली पहन ली अर्थात् सारी लगी रहती है । ए ए... निसरी- देवता भी स्वागत करते हैं। आत्मदर्शन (३) साध, आइ अपना रूस जब देखा । करता हैौन कौन इनि करनी, कौन माँगेगो लेखा। साधु भंगति अल गुरु की कृपा, मिट गइ कुल की रेखा । अप्रबधन प्रभ परचो पायो, उतर गयो दिल भेजा tt उतर . . .भूख=सया का आवरण हट गया। ज्ञानोदय (४) मेरे घट -भानु भयो भोर। चेतन चक्रबा चेतन चकवी, भागके विरह को सोर। फैली उहें दिस चतुरभाव-चि, सिटघो भरस तम जोर। अपको चोसे अपही जानत, और कहत ना दोर। श्रमल कमल विकच भये भूतल, मंद विषयससिकोर । अनंघन एक वल्लभ लागतऔर न लाख किरोर । चतर...रुचि --शान को ज्योति । विकच ये -खिल उठे । कोरकिरण : बल्लभ-प्रियतम ।