पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३४४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मध्ययुग (पूर्वार्द्ध ३३१ मध्यस्थ की आवश्यक्ता (५) रिलानी अष मनबो रे प्यारेदिन वसीठ न फेर। सौदा अगम है प्रेम का, परखत बूकोय। ले दे बो नम पड़े प्यारे, और दलाल न होय। दो लां जिनकी नेत्ररेमेट सनकी अठ। तन को तथत , प्यारवचन सुधारस छाँट । नेक नजर निहालिये रे, उजर में कोले नाथ। तत नजर मुजरे मिले प्यारे, अजर अमर सुख साथ। निसि ऑधियारो घर घटा रे, पाऊँ न बाट को फंद । करुणा करो तो निरब यारे, देचू तुम मुख चंदे । प्रश जहां दुविधा नहीं है, सहि ठकुराइत रेज । अनंबघन प्रभु आइ विरास्ते, आपहि मनता-सेज ॥ अप e= स्वयं ३ बिवच. . . फेरोचबचाव करने वाले किसी अन्य व्यक्ति में सहायता न लो? परखन . . .कडेय =अपने निजी अनुभव से हो इसकी जानकारी हो पातई है: लेहे. . पड़े जरे इसमें रहता है उसी को इसका रहस्य विदित होई? है। अता-=बात ! जिनको =अर्स की। आटय= चांड । छांट ==चुन कर है निहालिये =दृष्टिपात कीजिए। उजर टझानाकानी। फंद-=उपाण, संकेत ठकुराइस स्वामीपन । रेज =मीच कोटि का व्यक्ति, दसंप है। अस्-लोला। (६) देखो एक अपूब खेला। अपहो बाजी मापी बाजीगरआप गुरू श्राप चेला। लोक अलोक बिच अाघ , ज्ञान प्रकाश अकेला। .बाजी छाँड तहाँ चढ़ बैठे, जिहां सिंधु का मेला।