पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३७५

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३. मध्य युग (उत्तराई ) ५ स० १५५०-सं०१७०० ) सामान्य परिचय संतसाहित्य के इतिहास के मध्ययुग का उत्तरार्द्ध काल कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण है । संतनत का प्रचार इस काल में पहले की अपेक्षा बहुत अधिक हुआ और उसी प्रकार अनेक रचनाओं की भी सुष्टि हुई । इस समय के संतों ने बहुत से पंथों तथा संप्रदायों का संगठन किया और प्रत्येक का दूसरे के साथ कुछ न कुछ अंतर भी स्पष्ट लक्षित होने लगा । सभी बगई ने अपनेअपने लिए नियमावलि बनाई, धर्मग्रंथ निश्चित किये तथा अपनेअपने मतों के अनुसार पूजनपद्धति स्वीकार कर ली । इस काल के कुछ संतों ने प्राचीन महा पुरुषों को अपना सद्गुरु कहा तथा कभीकभी अपने को उनका अवतार मानना तक आरंभ किया और एकब ने अपने को भविष्य का उद्धारक अथवा मसीहा तक घोषित कर दिया । उदाहरण के लिए गरीबदास ने अपने को कबीर साहब का गुरुमुख शिष्य बतलाया और उसी भाँति, चरणदात ने भो शुकदेव मुनि को अपना सक्ष स्वीकार किया । दरियासाहब (मारवाड़ी) इसी प्रकार दादू साहब के अवतार माने गए और बरियादास (बिहारी) दूसरे कबीर साहब कहे 'ने लगे । प्राणनाथ ने अपने को कल्कि अवतार अथवा संसार को सुधारकर एक सूत्र में बांधने वाला मसीहा बताया तथा इसके लिए पुराने धर्मग्रंथों के प्रमाण तक उद्धृत किये । फिर भी इस काल की एक विशेषता, तत्कालीन संतों के हृदयों में धर्म समन्वय का भाव जागृत होने में भी, लक्षित होती है । संत.