पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४२९

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४१६ संतकाय निजम निरूप हो कि सुंदर स्वरूप हो कि, भूपत के भूप कि बानो महादानो हो। प्राम: के बयादूषपूत . के देवैया, रोग सोग के निया किध आनी सहानी हो । विद्या विचार हौ कि अद्भुत अवतार हैं, कि सुद्धता को सूति हो कि सिद्धता की समान हो। जोवन के जाल हो कि कालगढ़ के काल हो, साधुन के लाल हो कि मित्रण के प्रन हो ३। राफजो इशाम साफ =:स्लिम फिर । साक्षस :मनुष्य। राजक

-रोजी देने वाला। कनूकाकप 1 कोट-कोटि बा बेर। पूरत है . =

हो जातो है। पान=पानी, जल। अभूत=विचित्र, अनेकानेक 1 निर्जन जम्। लान=नादर्शो । जाल=पा, प्रध सवैया बीमन की प्रतिपाल करें नितसंत उबार गनीमन गारं। ‘पच्छो पस्सू, नरोताग, नराधिg, सर्व समैं सबको प्रतिपारे । पोषत है जलमें थलसेपलमें कलक नह कर्म बिचाएं। ‘दीन दयाल बयानिधि बोवन देखत हैपर वेत में हारे 1१। काह भयो दोउ लोचन मुंद, बैठेि रहो बकध्यान लगायो। नहात फिरयो लिए सात समुंदनलोक गयो परलोक गंवायो । वासु कियो बिखियान सों बैंठ, ऐसे ही ऐस सुबैस बितायो। सावं वहाँ सुनि लेतु सबैजिन प्रेम किय तिनही प्रभु पायो ।।२है॥ ‘अन्य जीओ तिह को जगममुखते हरि चिस में शुद्ध बिचाएं। ‘देह अनित्य न नित्य रह जस नाव चढ़े भवसागर ताएं । धीरज धाम बनाइ इहै तन, बुद्धि सुदीपक जिंड उजियार। शाहि को बढ़ती मनु हाथ लं, कातरता कुतवार हारे हैं।