और उसे उनके आरंभ में ही दिया जाता है । परंतु सिखों की
प्रसिद्ध मान्य पुस्तक 'आदिग्रंथ' में इसके विपरीत, ध्रुव को 'रहाउ' की
संज्ञा दी गई मिलती है और उसका स्थान भी दूसरा रहा करता है ।
'ध्रुव' अथवा 'रहाउ' का यह क्रम संबंधी अंतर उपर्युक्त प्रबंधों में
भी दीख पड़ता है जिससे प्रतीत होता है कि 'आदिग्रंथ' के संग्रहकर्त्ता
ने, कदाचित् पुरानी संगीत-पद्धति को ही स्वीकार किया होगा । संतों
की ऐसी रचनाओं को कभी-कभी ‘बानी’ वा वाणी, भी कहा जाता है,
किंतु ये नाम वस्तुतः उनके सारे वचनों वा उपदेशों को भी दिया
जा सकता हैं ।
संतों की बहुत सी रचनाएँ ‘साखी' के नाम से भी प्रसिद्ध हैं और
इनका रूप अधिकतर दोहों का-सा पाया जाता है । ऐसी रचनाओं
के लिए संतों ने 'साखी' शब्द का प्रयोग किस अभिप्राय से किया
है इसके संकेत उनकी कृतियों में अनेक स्थलों पर मिल सकते
हैं। यह शब्द 'साक्षी' शब्द का रूपांतर जान पड़ता है जिसका अर्थ
किसी बात को अपनी आँखों देख चुकने वाला और , इसी कारण,
उसके संबंध में किसी प्रश्न के उठने पर प्रमाणस्वरूष भी समझा जाने
वाला व्यक्ति हुआ करता है । संतों की साखियों में विशेषकर वे
बातें ही पायी जाती हैं जिनका उनके रचयिताओं में अपने दैनिक जीवन
में भलीभाँति अनुभव कर लिया है और जिन्हें वे अपनी निजी कसौटी
पर पहले से कस चुके रहने के कारण, साधिकार व्यक्त करने की
क्षमता रखते हैं संतों की साखियाँ उनके ऐसे अनुभूत सिद्धांतों को
प्रकट करती हैं जो हमें अपनी कठिनई के अवसरों पर कई प्रश्नों को
सुलझाते समय काम दे सकते हैं : कबीर पंथ के मान्य ग्रंथ ‘बीजक' में
भी इसी कारण, कहा गया है,