पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३६
संत-काव्य।

‘साखी आँखी ज्ञान की,समुझि देतु मनमाहि
बिनु साखो संसार का, झगरा टत नाहिं ।

अर्थात् विचारपूशेंक देखने से विदित होता है कि साखियाँ, वास्तव में, ज्ञानचक्षु का काम देती हैं, क्योंकि ये साक्षी पुरुषों की भाँति, तत्व निर्णायक प्रमाणरूप हुआ करती हैं और उनके बिना संसार के झगड़े का छूटना संभव नहीं हुआ करता। ये छोटी होती हुई भी अत्यंत महत्व पूर्ण होती हैं ।

संतो की साखियाँ अधिकतर दोहा छंद में पायी जाती है जो बहुत प्राचीन है। 'दोहा' शब्द को संस्कृत शब्द दोग्धक वा दोधक का रूपांतर मानते हैं। किंतु यह अपभ्रंश भाषा का ' एक स्वतंत्र छंद भी हो सकता है । दोहे को कभी -कभी दोहरा भी कहा जाता है और उसके अंतर्गत सामान्यतः सोरठे को भी सम्मिलित कर लिया जाता हैं । ऐसा करना उतना अनुचित भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि दोहे के प्रथम और तृतीय चरणों को क्रमश: द्वितीय तथा चतुर्थ चरणों की जगह केवल बदलकर रख देने पर हीं सोरठे का छंद बन जाता है । दोह छंद अपभ्रंश में बहुत प्रचलित रहा है और उसमें की गई सिद्धों,जैनमुनियों एवं चारणों की अनेक रचनाएं आज भी उपलब्ध है। दोहे को राजस्थानी में ‘दूहे की संज्ञा दी गई है और वहाँ भी इसमें अनेक सूक्तियों तथा प्रेम कहानियों की रचना की जा चुकी है संतों ने इन्हें अपनी साखियों के रूप में अपनाकर इनका महत्व और भी बढ़ा दिया। इनके अंतर्गत उन्होंने न केवल दोहों एवं सोरठों को ही सम्मिलित किया,अपितु,सार हरिपद,चौपाई, दोही,सरसी, गीता, मुक्तामणि, श्याम उल्लास आदि प्रायः बीसों अन्य छंदों को


१.‘बोजक',साखी ३५३।