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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/५४१

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'५२८ संत- .. महल अवें परमपद । सोहंगम =सोहै। पर धारा . . . मेलत = नाद की अजल धारा में लीन होते होते । व सी . . , में=अनाहत ध्वनि सुन पड़ी। (१७) चई भले हल पर कुछ प्राइवे हाथ । कुंजो अबे हाथ सब्द का खोले ताला । सात महल के बाद सिौ अठएं उजियाला । बि कर बाजे तार नाद बिनुरसना गावे। सहाँ दीर्ष ६ बरे दोप में जाय समावें । दिम दिन लइगे रंग सफाई दिल को छपने रस रस नतलब क ई सिताबी कई नम सने ! ? पलटू मलिक तुड़ी है को न जा साथ। चढ़ चौमहले महल पर कुंजो आबे हाथ 1१७। चमहले महल चतुर्थ पद । सहादीप. . . समावे =प्रकाशमान परस ज्योर्ति में लीन हो जाय। (१८) जागत्व में एक सूना मोह पड़ा है देख ॥ मोहि पड़ा है ट्रेल नदी इक बड़ी है । तामें धारा तीन बीघ में सहर बिलो हो है। सल एक अधिभार ब हैं त गैब को बाती। पुरुष एक त, रई देखि छवि बाक़ो मातो॥ पुरुष अ लाभ तन सु,ना में एकठो जाई । वाहि तान के सुनत तान में गई ाई॥ ल' पुरुष ऐन वह रंग रूप है रे । जगत में एक पना मोहि पड़ा है देख है।१८। सपना- स्वप्न। बिलौरी =बिल्लौर बा स्फटिक के समान