पृष्ठ:संत काव्य.pdf/५४०

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आधुनिक यु ५२७ सभ् =सीथा। एंटापं। सुरक्षि==प्राकृति। (१५) उलटा में तिसमें जऐ चिरईगए। कूबा गमन तिरुने ज* चिर विमा रोगन बिन बरती।

रितु बारह मास रहत जरतें दिन राती है।

सतगुर मिला जो होय ताहि की नजर में प्रवे। बि सतगुरकईड होष नहीं बाको देर सायं निकले एक अब चिरण की जोतदि सांही। हान समधीश सुने और कोई सुनता नहीं है पलट जो कोक सुन्रे ता पूरे भाग। उलट7 कूडा नगर में लिस्में जरें चिर।A१५। उलटा . . चिराघोमुख सहार चक्र में ज्योति बलहो है । रेगनलेल। रहत जरदeप्रकरशमन रहती है। निकलै . .सहि-= उम्र ज्योति के भीतर से अनाहत ध्वन्नैि सुन पड़ती है । झ व समाधी उसे विचार पूर्व सनने वला और. . . नाहों =दूसरों को उसकी अनुभूति नहीं होती। (१६) बंसी बाजी गगन में संगत भ्रया मन मोर है गन या सनम मोर महुल अठवें पर बैठा। जहें उठे सोहंगम सब्द सब्द के भीतर पैठा है। नाना उठे तरंग क्ण कलयह न जाई । चांद सूरज छिषि संये सृजमना संज बिछाई है छवि भयां तन यह नेह उन्हीं स लागी । दसवां द्वारा फोईि जोति बाहर दें जागी है। पलट धारा तेल की मेलत है गया भर । बंसी बाजी गगन में मगन भय न मोर 1१६।।