सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:संत काव्य.pdf/७६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६३
भूमिका

कौतुकियों का प्रसंग आया है। वेदोच्चार के रूप में कदाचित् मंत्रोच्चार एवं शाखोच्चार तक आ जाता है, किंतु ये सभी बातें उस घटरूपी घरके भीतर ही सम्पन्न होती हैं जिसका नाभिकमल उसके लिए प्रधान वेदी का काम देता है। गुरु नानक देव का उक्त वर्णन तो इससे भी अधिक स्पष्ट जान पड़ता है। यहाँ पर भी 'घटि' का अर्थ अपने शरीर में है, 'गुरु दुआरै' का 'सद्गुरु' के द्वारा होगा और 'तिहुंलोक महि सबदु रमिओ' का अभिप्राय 'सब कहीं बाजे-गाजे की धूम सी मच गई न मान कर 'आपु गहआ मनु मानिआ' के सहारे स्वानुभूति के अवसर पर विश्वव्यापी अनाहत नाद के अपने घट में श्रवण करने का ही समझा जाना चाहिए। संतों ने पति-पत्नी भाव को इस प्रकार, शुद्ध प्रतीक के रूप में ही अपनाया है। संभवतः उसी वात को कुछ अधिक गंभीर एवं रहस्यमय वना दिया है जो उपनिषदों में कभी, केवल एक दृष्टांत के रूप में, ब्रह्मानुभूति की तीव्रता स्पष्ट करने के लिए ही, प्रयुक्त हुई थी।

इसके सिवाय, संतों की निर्गुणोपासना सदा प्रेमाभक्ति के साथ चला करती है जिसमें माधुर्य भाव को प्रधानता दी जाती है। पति-पत्नी का भाव वास्तव में, प्रेम की पराकाष्ठा का सूचक है। यही वह दशा है जिसमें उसके विशुद्ध, निःसीम एवं निरुपाधि रूप की उपलब्धि होती है जिसका अंतिम परिणाम स्वात्मार्पण द्वारा अभेद भाव की अनुभूति है। प्रेम तथा मोक्ष का स्वाभाविक संबंध है, क्योंकि दृढानुराग के बिना भक्ति संभव नहीं, भक्ति का अंत आत्मार्पण में हो जाया करता है। आत्मनिवेदन ही क्रमशः उस अभेदभाव में भी परिणत होता है। जिसकी अनुभूति को संतों ने जीवन्मुक्त की दशा मानी है। वैष्णव भक्तों ने प्रेमाभक्ति के लिए पति-पत्नी भाव को स्वकीया से कहीं अधिक परकीया प्रेम के रूप में अपनाने की चेष्टा की है। इसी कारण, श्रीकृष्ण की पत्नी रुक्मिणी से कहीं अधिक उनकी