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संत-काव्य

"गावहु गावहु कामणी विवेक वीचारु।
हमरै घरि आइआ जगजीवनु भतारु ॥रहाउ॥७॥
गुरू दुआरै हमरा बीआहु जिहोआ जासहुँ मिलिआ तां जानिआ‌।
तिहुँ लोका महिं सबदु रमिआहै आपु गइआ मनु मानिआ॥

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भनति नानकु सभना का पिवु एको सोई।
जिसनो नदरि करे सा सोहागण होई॥१०॥"[१]

अर्थात् हे कामिनियों तुम सभी लोग अब पूर्ण विवेक एवं विचारपूर्वक गान करो। मेरे घट में मेरे भर्त्ता स्वयं परमात्मा का आविर्भाव हो गया। सदगुरु के द्वार पर मेरी विवाह विधि पूरी हुई जिसे वही जान सकता है जो कभी उसका अनुभव कर चुका है। शब्द तो तीनों लोकों में व्याप्त है, किंतु उसमें मन तभी लीन होता है, जब कोई उस तक पहुँच भी पाता हो नानक का कहना है कि वही एक मात्र पुरुष हम सभी लोगों का प्रियतम है और वह जिस पर अपनी कृपादृष्टि डालता वही उसकी सोहागिन कहला सकता है।

संतों के वक्त मिलन-वर्णनों में जीवात्मा एवं परमात्मा के क्रमशः पत्नी एवं पति के संबंध का उल्लेख पाकर यह समझ लिया जाता है कि वे इसे किसी शारीरिक वा भौतिक रूप में भी स्वीकार कर रहे हैं। इस प्रकार इसमें कोई वैसी विशेषता नहीं है। परंतु संतों की ऐसी पंक्तियों पर कुछ ध्यानपूर्वक विचार कर लेने के अनंतर यह भ्रम दूर हो जाता है और इस प्रकार के प्रतीकों का वास्तविक आशय भी प्रकट हो जाता है। उदाहरण के लिए संत कबीर साहब के उपर्युक्त अवतरण में उनके तथा उस 'एक अविनाशी' के विवाह संबंध का विवरण दिया गया है, उसमें बाराती लोगों की चर्चा है, भाँवरें लेने का उल्लेख हैं


  1. 'आदिग्रंथ' ('गुरु ग्रंथ साहिब जी', वालसा प्रेस अमृतसर), पृष्ठ ३५१।