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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/७८

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भूमिका

वैष्णव भक्तों ने दाम्पत्य भाव को रचा अथवा गोपियों के संबंध में उदाहृतकर उसे व्यावहारिक जगत् के बहुत निकट ला दिया है जिस कारण, हमें उसके वास्तविक शुद्ध रूप का बहषा परिचय नहीं मिल पाता : श्री कृष्ण का अनुपम सौंदर्यउनकी प्रेमिकाओं का परकीयापन उनके आमोदप्रमोद एवं हासविलास की विविध चेष्टाएँ तथा उनके विरहंजय विलापादि जैसी बात उक्त भाद पर एक रंगीन आवरण सा डाल देती हैं जो उसके मौलिक तथ्य को ढंक लेता है। फलतः गूढ माधुर्य की अनुभूति के बदले हमें अधिकतर बाह्य शृंगार' का परिचय मिलने लगता है और सर्वसाधारण के विषयासक्त मन का उधर लुभाकर बहक जाना स्वाभाविक-सा हो जाता है। हिंदी साहित्य के इतिहास में भक्ति-काल के अनंतर शृंगाररसप्रधान रीति साल का आना भी, मुख्यतः इसी कारण संभव हुआ था।

साहित्यशास्त्र के अनुसार केवल नव ही रस माने जाते हैं जिनमें मधुररस नाम का कोई भी नहीं है। इस रस की चर्चा बहुधा भक्ति काव्य के मर्म लोग करते हैं। वे ही इसे बहुत बड़ा महत्व भी दिया करते हैं। उन्होंने 'भक्तिरस' नाम का भी एक पृथक रस माना है जिसमें किसी देव बिषयक रति को उसका स्थायीभाव स्वीकार किया गया है। इस प्रकार मधुररस से वह वस्तुतः भिन्न नहीं समझा जा सकता। फिर भी 'भक्ति' शब्द के अर्थ में, अपने से बड़े के प्रति प्रदशित एक प्रकार की श्रद्धा का भाव भी मिला रहता है जो मधुररस के लिए उतना आवश्यक नहीं है। मधुररस को शुद्ध शांतरस के रूप में स्वीकार करना भी उचित नहीं जान पड़ता, क्योंकि शांतरस का स्थायीभाव निवेंदसमझा जाता है जो कोरे वैराग्य तथा उदासीनता का द्योतक होने के कारण, उसके लिए वैसा उपयुक्त नहीं कहा जा सकता। हाँ, शांतरस के स्थायी भाव के लिए यदि शमवा शांति शब्द का प्रयोग किया जा सके तो हम उसे मधुरस के प्रतिकूल