पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/१०६

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८६ सचित्र महाभारत [पहला खण्ड नहीं है। युधिष्ठिर को जुआ खेलने का शौक है। हम भी खेलना जानते हैं। इसलिए उनको खेलने के लिए बुलाओ। फिर देखना, हम उन्हें हराकर तुम्हारे लिए वह राज-पाट, धन-दौलत ला सकते हैं या नहीं ? शकुनि की बात समाप्त होते ही दुर्योधन पिता से बोले :- ह पिता ! गान्धारराज मामा शकुनि निश्चय ही जुआ खेलने में बड़े चतुर हैं। हमारी समझ में उनका प्रस्ताव उत्तम है और सम्भव भी है । इसलिए आप इस विषय में आज्ञा दें। धृतराष्ट्र बोल :-महाबुद्धिमान् विदुर हमार मन्त्री हैं। ऐसे भारी मामले में बिना उनकी सलाह के कोई काम करने का साहस हम नहीं कर सकतं । वे निश्चय ही हम लोगों को धर्म के अनुसार सलाह देंगे। दुर्योधन बोल :-हे राजेन्द्र ! हम पहले ही से कह सकते हैं कि विदुर ऐसा करने के लिए आपको मना करेंगे। पर हम कहे रखते हैं कि ऐसा न होने से हम प्राण नहीं रक्खेंगे। पुत्र का यह हाल देखकर उस शान्त करने के लिए धृतराष्ट्र उसकी बात पर राजी हो गये और नौकरों को बुला कर बोले :-- ___ कारीगरों से कह दो कि एक हज़ार खम्भ लगा कर सौ द्वारोंवाला स्फटिक का एक रन- मण्डित खेलघर शीघ्र ही बनावें। दुर्योधन इससे प्रसन्न होकर चले गये। पर विदुर का बुलाये बिना धतराष्ट्र से न रहा गया। कारण यह कि वे जुए को अनेक दोषों का घर समझते थे। जुआ खेलने का समाचार पाकर, सोच- विचार में डूबे हुए विदुर जल्दी से जेठे भाई धृतराष्ट्र के पास पहुँचे और घबराहट से कहने लगे :- महाराज ! हम आपकी इस बात को अच्छा नहीं समझते। इस खेल के कारण आपके पुत्रों में वैर की विकट आग जल उठने की सम्भावना है। अब भी समय है । आप इसे रोकिए। धृतराष्ट्र ने दुर्योधन को मना करना असम्भव समझ कर विदुर की सलाह न मानी । वे बोले :- हे विदुर ! तुम इस इरादे को हमारा क्यों कहत हो ? सब कुछ दैव के हाथ है। दैव ही इसका कारण है। यदि देव प्रसन्न हो गया तो कोई विपद न आवेगी। इसलिए तुम निडर होकर खाण्डव. प्रस्थ जाव और युधिष्ठिर को खेलने के लिए हमारी तरफ़ से न्योता दो। जब विदुर दुखी होकर चले गये तब धृतराष्ट्र ने फिर दुर्योधन को एकान्त में बुला कर समझाने की आखिरी चेष्टा की। वे बोले :-ई बंटा ! विदुर हम लोगों को कभी ऐसा उपदेश नहीं देते जो हमारे लिए भला न हो। इसलिए जब वे इस बात पर राजी नहीं हैं तब जया खेलने की कोई जरूरत नहीं। देखो, तुम विद्वान् हो। तुमने राजगद्दी पाकर अपने बाप-दाद के राज्य को खूब बढ़ाया है। दिन पर दिन तुम्हारा तंज बढ़ता जाता है । इसलिए तुम्हारे दुखी होने का कोई कारण हम नहीं देखते। दूसरे की बढ़ती से दुखी होकर क्या तुम अपना भी अधिकार खोना चाहते हो ? दुर्योधन बोले :-हे गजन् ! हम जिस तरह दुख से दिन बिताते हैं उससे जो हो जाय से। ही अच्छा है । युधिष्ठिर की सभा में जो अपमान हमने लाचार होकर सहे हैं उनका बदला लिये बिना हम क्षण भर भी नहीं रह सकन । शत्रु के तरफ़दार विदुर की बातों में आकर आप किस लिए अपने पुत्रों के वैभव की वृद्वि को रोकते हैं ? यदि इस तरह चुपचाप बैठे रहना ही आप अच्छा समझते हैं तो ऐसे जीने से मर जाना ही अच्छा है। धृतराष्ट्र ने कहा :-पुत्र ! तुम जो कहत हो उसे हम अच्छा नहीं समझते। खैर, तुम जो चाही करो; पर ऐसा न हो कि पीछे पछताना पड़े।