मचित्र महाभारत [पहला खण्ड ह युधिष्ठिर ! हम नम पर प्रसन्न हुए। तमको यह अदाय-भ्याली देन हैं। प्रतिदिन जब तक द्रौपदी भाजन न करेंगी तब तक इस थाली में अनेक प्रकार के अन्न बगबर बन रहेंगे- तब तक यह नाना प्रकार के भोजन दिया करेगी। यह कह कर मृय भगवान अन्तर्धान हो गये । धर्मगज ने द्रौपदी का वह थाली द दी। द्रोपदी प्रतिदिन भाजा बना कर पहले वनगामी ब्राह्मणों को भोजन कगनी. फिर पतियां को और मचग पीछे आप करनी। नव नक दम थाली में तरह तरह का पटग्म अन्न प्राप्त होता रहता । रामक बाः पागटव लोग गङ्गातीर में कुरुक्षेत्र गये और उसके निकट मरम्बनी नी के किनारे, कर जागा देश के कारण मन में डेरा डाल कर बड़े कप मे दिन विताने लगे। कनि गव मा. एकान्त में द्रौपदी के साथ बैठे थे। इसी ममय दर में उन्होंन दग्या कि. चचा विदर नदी की पैर उठान हुए वहीं पा रहे है। बड़े श्राश्रय में आकर युधिष्ठिर भीम मे बाल :- भीम । न मालम किम मतलव स विदर यहाँ आन है? क्या दयाधन फिर जया बन कर हमारं एकमात्र अाधारण अत्र-शस्त्र भी छीनना चाहते है ? यदि गागडीव धनुप दुसरं के हाथ में चला गया ना हम सचमुच ही असहाय हो जायेंगे । गई. बाद पागट्य लोग आगे बढ़ा कर विर का लिवा लाये । जब विदर का सत्कार हो चका और व विश्राम भी कर चुके तब मव लागी न घबराहट में उनके आने का कारगा पछा । विदुर कहने लगे : हं पागढुव । एक दिन महाराज धनगष्ट्र नं मलाट करने के लिए हमें एकान्त में बुला भंजा और इस प्रकार कहा :- विदर! जो होना था हो गया । अब यह बतलाओ कि हमें क्या करना चाहिए। उमक उत्तर में हमने फिर भी वहीं कहा जो हम मदा में कहते आये है :- ____ हे नरेन्द्र ! हम बार बार कहन है कि आपके पुत्रों के किये हुए पापा का प्रायश्चित्त नी हो मकता है जब आप पागडवों को उनका पैतृक गज्य लौटा दें। यदि दुर्याधन खुशी से पाण्डवों के साथ एकत्र गज्य न करना चाहें तो उनको अलग करके पाण्डयां ही के हाथ में सब गच्य दे दीजिए। इसके मिवा कुल को नाश होने से बचाने का और काई उपाय नहीं । तब महागज पुत्र के सम्बन्ध में एमी कठोर बात सुनकर मष्ट हुए और हममे बोल :-- हे विदुर ! जब मभा में पहल पहल तुमने ये बातें कही थीं तब हमने समझा था कि तुम सचमुच ही हमारी भलाई करनेवाला उपदंश दन हो । पर अब साफ माफ मालूम होना हैं कि किमी न किमी तरह पाण्डवों का गन्य हिलाना ही तुम्हाग मतलव है। जान पड़ता है, उनकी भलाई करना ही तुम्हारा एक-मात्र उद्देश है । हमारी भलाई बुराई की तरफ तुम कुछ भी ध्यान नहीं देते। अब हम ममझ कि विश्वासघातक का यदि बहुत कुछ सम्मान भी किया जाय तो भी वह पूरी तौर से सम्मानकर्ता की तरफदारी नहीं करता-उसकी हिनचिन्तना नहीं करना। इसलिए चाहं तुम यहाँ रहो, चाहं कहीं चले जाव, इनमें हमारी कोई हानि नहीं । यहाँ पर तम्हाग रहना और न रहना हमारे लिए दोनों समान हैं । यह कह कर भाई सहमा उठ खड़े हुए और भीतर चले गये । हम भी तुम्हें यह खबर देने आये हैं कि धर्म के अनुसार मिद्वि प्राप्त होने की कोई आशा नहीं। इसलिए है पागडवगण ! तम अब धीरज धर कर समय की प्रतीक्षा करो। अवसर आने पर अपने महायकों को इकट्ठा करना ही तम्हारे लिए एकमात्र उपाय है।
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