पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/१२६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सचित्र महाभारत [पहला खण्ड सिर्फ इन्हीं चार कठार-हृदय पापियां के आँसू नहीं आये। हा नाथ ! आपका प्रतिदिन सभा में राजाओं से घिरा हुआ देखती थी; श्राज आपका कुशासन पर देख कर कैसे धीरज धीं ? जिन भीमसन का सदा तरह तरह से आदर होता था, वही आज दीन मनुष्यों की तरह दासां का काम करते हैं। जो अर्जुन तमाम दुनिया का धन जीन कर धनश्चय नाम से प्रसिद्ध हुए वहीं आज तपस्वियों के वेश में दुख पा रहे हैं। नरुण अवस्थावाल नकुल और महदेव का मुकुमार शरीर भी वनवास के कठोर क्लेश से दुबला हो रहा है। हं पाण्डवनाथ ! जब ये गसी हृदय दहलानेवाली वात देख कर भी आप शान्त रह सकते हैं तब निस्सन्देह आप में ज़रा भी क्रोध नहीं । किन्तु लोग कहते है कि क्रोधशुन्य क्षत्रिय को जा चाहता है दबा लना है-उसका मदा तिरस्कार होना है। जो शत्र का क्षमा करता है उसकी उन्नति नहीं हो सकती । युधिष्टिर ने कहा : -प्रिय ! क्रोध से भलाई भी हो सकती है और बुराई भी। इसलिए देश, काल का विचार करके क्रोध करना उचित है। अर्थात जिस समय और जिस जगह क्रीव करना बहत है जरूरी ही वहीं क्रोध करना चाहिए। ज़म्रत पड़ने पर जो मनुष्य क्रोध नहीं रोक सकता उसका विनाश हाए बिना नहीं रहता। दुखी होने पर दुख देना, घायल होने पर घायल करना, सताये या मारे जाने पर सताना या मारना बहुत बुरी बात है। यदि लोग ऐसा करत तो सम्पूर्ण पृथ्वी अब तक विनष्ट हो जाती। क्षमा करना ही सनातन धर्म है । इसलिए हमने दुर्योधन आदि से क्षमा का बग्ताव किया है। द्रोपदी ने कहा :-गज्य की रक्षा करना आपका कर्तव्य था। सा जिस सनातन धर्म नं माह पैदा करकं उस कर्तव्य के सम्बन्ध में आपकी बुद्धि का भ्रष्ट कर दिया उसे नमस्कार है ! आप कर्तव्य काम छाड़ कर अब कौन सा धम कमा रहे है सा भी तो मैं नहीं जानती। हाथ पर हाथ रख कर बैठे रहना ही आपका पसन्द है। आय्य लोग कह गये हैं कि जो धर्म की रक्षा करता है उसकी रक्षा धर्म भी करता है। पर आपकं धर्म नं आपकी रक्षा कहाँ की ? हे गजन ! ब्रह्मा, पिता-माना की तरह जीवधारियां स स्नेह नहीं करना, नहीं तो अधर्म की जीत कैस होती? और इस अधर्म से उत्पन्न हुए पाप का फल वद ब्रह्मा का क्यां नहीं भागना पड़ता, अाप जानत है ? कारण इसका यह है कि वह बलवान् है ! इसलिए ह महागज ! बल ही मुग्य है । दुर्बल मनुष्य ही पराधीन होने है; उन्हीं की दशा शाचनीय हानी है। युधिष्ठिर बाल :-द्रौपदी ! तुम्हारी बात ऊपर से ज़रूर बहुत अच्छी जान पड़ती है, किन्तु मालूम होता है कि तुम उसका पूरा पूग मतलब नहीं समझती । हे सुन्दरी, तुम्हें अपनी अल्पबुद्धि का भरामा करके विधाता का तिरस्कार न करना चाहिए। तुरन्त फल पाने की और सदा दृष्टि रखने से कभी भी अन्तिम फल नहीं मिलता। हम आनेवाले नित्य सुख की ओर दृष्टि रख कर वर्तमान समय के शात्र ही नाश हो जानवाल दुग्यों की परवा न करने की शक्ति रखत है। द्रौपदी ने कहा :-हे पार्थ ! मैं धर्म का अपमान या विधाता की निन्दा नहीं करना चाहती । मैंन जो दुःख मह हैं उन्हीं का रोना गती हूँ और उन्हीं के विषय में विलाप करती हूँ । अभी और भी कुछ गेना है; सुनिए । मंगे समझ में तो काम करनं ही में सुग्व होता है। काम करने में चतुर मनुष्य ही एश्वर्य प्राप्त करता है। सदा विचार करने बैठना और मंशय में लीन रहना ही अनर्थ की जड़ है। आज कल हम लोगों को वही अनर्थ प्राप्त हुआ है। यह सोच कर कि शायद पीढ़ काम सफल न हो, यदि आप कुछ न करेंगे तो कभी राज्य न पा सकेंग। दखिए, किसान के जोतने पर भो जब पानी नहीं बरसता तब उसे यह जान कर सन्ताप होता है कि जो कुछ मुझे करना था सा कर लिया। यदि किसी के चेष्टा करने पर भी उसका फल न हुआ तो उसका कोई अपराध नहीं। यदि आप पुरुषों का मा काम करें तो गज्य न मिलने पर भी उसमें सुग्व है। भीमसन प्रियतमा द्रौपदी की उत्तेजनापूर्ण बाता से उत्तजित होकर कहने लग :- द्रौपदी ने ठीक ही कहा। जिस तरह भल आदमी गज्य लन हैं उसी तरह हमें भी लना चाहिए। दुयोधन ने धर्म के अनुकूल उपायों से हमारा राज्य नहीं छीना। हम लाग कपट के द्वारा राज्य से हटाये