पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/१२५

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पहला खण्ड ] पाण्डवों का वनवास तक हो मकंगा हम पाण्डवा की सहायता में कोई कसर न करेंगे। हे द्रौपदी ! चाहे आकाश टूट पड़े, चाहं हिमालय चूर चूर हो जाय, चाई समुद्र मूग्व जाय, पर हमारी यह बान कभी झूठ न होगी। कृष्ण की इस बात से कुछ शान्त होकर द्रौपदी ने जब अर्जुन की ओर कटाक्ष किया तब अर्जुन ने भी कृष्ण की बात का समर्थन करके कहा : प्रिये ! रोश्री मत। कृष्ण की बात व्यर्थ न जायगी। तब कृष्ण ने युधिष्ठिर से कहने लगे : हे धर्मराज ! यदि हम उस समय द्वारका में हात ता आपका ये क्लश न भोगने पड़न । यदि कौरव लांग हमें बलात भी नहीं तो भी हम जाघर में पहुँच कर और भीष्म तथा धतराष्ट्र का जाप के बहुत से दोष दिखा कर ग्बल न होने देते। और यदि हमारी बात न मानी जाती तो हम दुर्याधन को दण्ड दिय बिना न रहन । किन्तु दुर्भाग्य से हम उस समय वहाँ न थे। यह सुन कर कि हमन आपकी राजसूय यज्ञवाली सभा में शिशुपाल का माग है, मौभगज शाच न, जब हम खाण्डवप्रस्थ में थे तभी, द्वारका पर चढ़ाई करकं बहुत उपद्रव क्रिया था। लौट कर ज्योंही हमने यह खबर पाई, त्योंही उम दुष्ट और उसकी गजधानी दोनों ही को विनष्ट कर दिया। जिस समय तुम पर यह विपत्ति आई, हम इसी बखड़ में लग थे। इसके बाद ही हमने आपकी यह दुःग्वदायिनी व्यवस्था सुनी। यदि उम समय यह जरूरी काम न होता ना निश्चय ही हम हस्तिनापुर पहुँचते । अब क्या करें, पुल टूट जाने पर पानी का जोर रोकना कठिन है। ____ इस तरह मवको धीरज देकर यादव लोग विदा हुए। युधिष्ठिर और भीमसेन ने माथा ग्य कर, अर्जुन ने गले लगाकर, नकुल और सहदेव ने प्रणाम करकं और द्रौपदी ने रोकर कृष्ण का यथाचित सत्कार किया। यादवों के चले जाने पर युधिष्ठिर ने भाइयों से कहा : हम जब बारह वर्ष इसी तरह बितान है तब कोई एनी अच्छी जगह दृढ़ना चाहिए जहा पशु, पक्षी, फल, फूल आदि ग्वृव हो । ___ अर्जुन ने कहा :-आपन यदि कोई विशेष स्थान साच न रक्खा हा ता द्वैतवन नामक एक जी लुभानवाला स्थान हम मालूम है। वहाँ अानन्द से हम लोग बारह वर्ष बिता सकेंगे। वह पास ही है। उसमें एक स्वच्छ सरोवर भी है। यह सुन सबने द्वैतवन जाना ही निश्चय किया। पाण्डव लोग ग्थ पर सवार होकर उस सुन्दर स्थान में पहुँचे। वहाँ उन्होंने देखा कि वर्षाऋतु का आरम्भ है। ताल, तमाल, आम, जामुन, कदम्ब आदि के फूल और फल हुए वृक्ष बन की शाभा को बढ़ा रहे हैं । मोर, चकार और कोयल आदि पक्षी वृक्षों पर बैठ हुए आनन्द से बोल रहे हैं। ऐस मनोहर स्थान को देख कर पाण्डव बहुत प्रसन्न हुए। थके थकाये सब लोग रथ से उतरं और वृक्षों के नीचे शीतल छाया में बैठ गये । उस समय वनवासियों और धर्मात्मा तपस्वियों ने कुशलप्रश्न के बाद उनका आदर-सत्कार किया। पाण्डव लोग उनके सत्कार से प्रसन्न होकर वहीं रहने लगे। शिकार खेलन, फल-मूल लान, तपस्वियों के साथ धर्मचर्चा और आपस में तरह तरह की । बात-चीत करने में बड़े बड़े दिन शान्ति के साथ बीतने लगे। ___एक दिन शाम को युधिष्ठिर और भीमसेन के साथ बैठी हुई द्रौपदी युधिष्ठिर से कहने लगी : __ हे नाथ ! देखिए दुष्ट दुर्योधन कैसा निर्दयी है। वह हम लोगों का इतना कष्ट देकर कुछ भी दुःखित न हुआ। आपने जब वनवास के लिए मृगचर्म पहना था तब दुर्योधन, शकुनि, कर्ण और दुःशासन,