पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/१३१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पहला खण्ड] पाण्डवों का वनवास १०९ भीमसेन और युधिष्ठिर की ये बातें हो ही रही थी कि महर्षि वृहदश्व वहाँ गये। धर्मगज यथोचिन मधुपर्क के द्वारा उनका सत्कार करके अपनी दुग्वकहानी सुनाने लग :- हे भगवन् ! हम जुआ खेलने में निपुण नहीं; इसी से हमारी यह दुर्दशा हुई है। अर्जुन का हमें बड़ा भरामा था; सो उनके वियोग में आज कल हम जीते ही मृतक से हो रहे हैं। हाय ! कब वे लौटेंगे और कब हम फिर उन्हें देखेंगे ? क्या हमसे भी बढ़ कर अभागा गजा और कोई होगा ? बृहदश्व ने धीरज देनवाली और आशा बंधानेवाली बहुत मी कथायें सुना कर सबको शान्त किया। फिर कहा :- हे गजेन्द्र । जो होना था हो गया; अब उसके विषय में माच करना वृथा है। अब रंज न कंगे। यदि फिर कोई जाए के द्वारा तुम्हें छलने की चेष्टा करें तो हमें बला भेजना। जुआ खेलने में हम बड़े होशियार हैं। यह सुन कर युधिष्टिर ने आग्रह के माथ कहा :--- हे महर्पि ! जुए में निपुणता प्राप्त करने की हमारी बड़ी इच्छा है। इमलिए हम पर कृपा कीजिए । यह विद्या आप हमें अच्छी तरह सिग्वा दीजिए। महर्षि ने इस बात को स्वीकार किया और कुछ दिन वहाँ रहे । उनकी कृपा से युधिष्ठिर जुआ खेलने में बड़े निपुण हो गये। बृहदश्व के चले जाने पर एक दिन कैलास से कुछ तपस्वी आये। उनसे यह हाल जान कर कि अर्जुन तपस्या के लिए घोर शारीरिक क्लेश सह रहे हैं. पाण्डव लोग फिर शोकसमुद्र में डूब गये । पतिव्रता द्रौपदी अधीर होकर युधिष्ठिर से कहने लगी :- महाराज ! अर्जुन के विरह में इस जगह मेरा मन नहीं लगता। जिधर दृष्टि उठाती हूँ उधर ही मुझे अन्धकार देख पड़ता है। अब यहाँ किमी तरह मुझसे नहीं रहा जाता । यहाँ उनकी याद आने पर मुझे असह्य दुःग्व होता है। हाय ! उस महाबाहु अर्जुन के कब दर्शन होंगे। यह सुन कर भीमसेन बोले :- प्रिये ! जो कुछ तुमने कहा उससे हम बड़े प्रसन्न हुए। तुमने हमारे हृदय में अमृत की मी वा की । अर्जुन के बिना हमें भी इस काम्यक वन में किसी तरह सुग्व नहीं मिलता। चारों ओर अंधेग ही अंधेग जान पड़ता है। तब गला भर कर नकुल और सहदव भी युधिष्ठिर से कहने लग :-- हे राजन् ! ये लोग हमारे मन ही की बात कहते हैं। अब यहाँ क्षगा भर भी रहने की इच्छा नहीं । इसलिए कहीं दूसरी जगह चलिए। इस तरह के विलाप-वाक्य सुन कर युधिष्ठिर पहले से भी अधिक व्याकुल हुए और चिन्ता करने लगे। इसी समय देवर्षि नारद वहाँ आ गये । द्रौपदी ममेत पाण्डवों ने उनका यथोचित मत्कार किया । नारद ने पूजा ग्रहण करके प्रेमपूर्वक कहा :- कहिए, यह इतनी चिन्ता किस लिए है ? मालूम होने पर हम कुछ मदुपदेश देन की चेष्टा करेंगे। तब युधिष्ठिर ने सब हाल कह सुनाया । सुन कर वे बालं :-- सुना है कि महर्षि लोमश इन्द्रलोक से अर्जुन की खबर लेकर तुम्हारे पास आते हैं। उनसे अर्जुन का कुशल-समाचार जान कर तुम निश्चय ही प्रसन्न होगे । हमारी समझ में भी तुम लोगों का यहाँ रहना अच्छा नहीं। महर्षि लोमश ने बहुत से देश देखे हैं और वे उनका इतिहास भी जानते हैं । उनके साथ तीर्थयात्रा करने से तुम अपना बचा हुआ समय बड़े आराम से बिना मकोगे और किमी अच्छे स्थान पर पहुँच कर अर्जुन के आने का इन्तिज़ार कर सकोगे।