पहला खण्ड ] धृतराष्ट्र के पुत्रों का राज्य करना १२७ किसी न किसी तरह विनय करके इससे निस्तार पाने की चेष्टा तुम्हें करनी चाहिए; नहीं तो तुम ज़रूर विपद में पड़ोगे। कर्ण ने कहा :-जब खुद सूर्य भगवान् हमारी भलाई चाहते हैं और हमें कवच न देने के लिए उपदेश देते हैं तब उनकी आज्ञा मानना ही हमारे लिए अच्छा है। इसमें सन्देह नहीं किन्तु हे वरदायक भगवान भास्कर ! यदि आप हम पर प्रसन्न हैं तो हमें अपनी व्रतरक्षा से पराङ्मुख न कीजिए। यदि कवच देने से हमारे प्राण तक चले जायँ तो भी कोई हर्ज नहीं । क्षणभंगुर शरीर देकर चिरस्थायी कीर्तिलाभ करना ही हम अच्छा समझते हैं। सूर्यदेव ने कहा :-पुत्र ! इसी अभेदा कवच और कुण्डल के प्रभाव से संसार में तुम्हें कोई नहीं मार सकता । यदि अर्जुन की सहायता खुद इन्द्र भी करते तो भी वे तुम्हें हरा न सकते । यदि तम अपना व्रत किसी तरह नहीं तोड़ना चाहते तो एक बात ज़रूर करना । इन्द्र को कवच देकर उसके बदल कभी निष्फल न जानेवाली उनकी शत्रुघातिनी शक्ति माँग लेना। ___ यह कह कर सूर्यदेव अन्तर्द्वान हो गये। जब तक कर्ण आँसुर व्रत धारण किये रहे तब तक उनका यह नियम था कि दोपहर के म्नान के बाद जल से निकल कर वे सूर्य की स्तुति करते थे। फिर जो कुछ उनसे कोई माँगता था उसे वे तुरन्त वही देते थे। सुग्गज इन्द्र को यह हाल मालूम हो गया। वे ठीक समय पर ब्राह्मण का वेश धारण कर कर्ण के पाम आये । कर्ण ने कुशल-प्रश्न पृछ कर कहा :- हे ब्रह्मन् ! कहिए, आपको कौन चीज़ चाहिए ? इन्द्र ने कहा :-हम सोना, चाँदी, धन-धान्य कोई भी भाग्य वस्तु नहीं चाहते, यदि आप सच्चे व्रत धारण करनेवाले हैं तो हमें आप अपने सहजात कवच और कुण्डल दे दीजिए। इस बात से कर्ण समझ गये कि ये इन्द्र ही हैं । इससे परीक्षा लेने के लिए उन्होंने पूछा :- हे ब्राह्मण, हम अपने सहजात कवच और कुण्डल कैसे दे सकते हैं ? यदि चाहो तो हमारा सारा गज्य और सारी सम्पदा ले सकते हो। पर जब उन्होंने देखा कि ब्राह्मण कवच-कुण्डल के सिवा और कुछ नहीं लना चाहता तब कर्ण को सूर्यदेव का उपदेश याद आगया । इससे उन्होंने हँस कर कहा :-हे देवराज ! हम आपको पहचान गये । हम आपको भला क्या वर दे सकते हैं ? आप सारे संसार के स्वामी हैं। आपही को हमें वर देना चाहिए। हमारा कवच-कुण्डल लेकर यदि आप हमें इतना निर्बल कर डालना चाहते हैं कि जो चाहे हमें मार डाले, तो इसमें आप ही की हँसी है-आपही को लोग हमेंगे। इसलिए उसके बदले हमें कोई ऐसा अस्त्र दीजिए जिसका चलाना कभी निष्फल न जाय । इन्द्र ने कहा--हे कर्ण ! मालूम होता है कि हमारे आने के पहले ही सूर्य्य ने तुमसे हमारी याचना का मतलब बतला दिया है। जो हो, वज्र को छोड़ कर जो अब तुम माँगोगे हम दे देंगे । तब कर्ण ने अपने कवच-कुण्डल के बदले इन्द्र से उनकी शत्रुनाशिनी शक्ति माँगी। इन्द्र ने कहा :- लो, यह शक्ति हम तुम्हें देते हैं। पर एक शर्त पर यह तुम्हें मिलेगी। वह शक्ति अमोघ है। यह जिस पर छोड़ी जाती है उसे मारे बिना नहीं रहती। इसे छोड़ने पर शत्र का नाश करके यह हमारे ही पास लौट आती है। किन्तु तुम इससे केवल एक ही शत्र को मार सकोगे। एक बार चलाने के बाद यह फिर हमारे पास आ जायगी। एक बात और है । जब तुम्हें अपने प्राण जाने का भय हो तभी इसे चलाना । यदि किसी और समय में इसे चलाओगे तो यह तुम्हीं को मार डालेगी।
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