पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/१५२

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[ पहला खण्ड
सचित्र महाभारत

कर्ण ने कहा :-हे देवगज ! जिस शत्रु की हम सदा चिन्ता किया करते हैं उसी को मारने के लिए हम यह शक्ति चाहते हैं। उसका नाश होने से ही हमारी मनोकामना सिद्ध हो जायगी। प्राणों पर संकट पड़ने के समय के सिवा और किसी समय हमें आपकी इस शक्ति की सहायता की जरूरत ही न होगी। इसलिए हम आपकी शर्तों को मंज़र करते हैं। हे भगवन् ! ये अपने अभिलषित कवच-कुण्डल लीजिए। यह कह कर महावीर कर्ण ने इन्द्र से उनकी वह चमचमाती हुई अमोघ शक्ति ले ली । फिर उन्होंने एक पैने शस्त्र से अपने चमड़े से उतार कर खून से भीगा हुआ वह कवच और कुण्डल इन्द्र के हाथ में दे दिया। उस समय जरा देर के लिए भी न तो उनका मुँह ही फीका पड़ा और न हाथ ही कॉंपा। इम भयङ्कर काम के समाप्त होने पर महावीर कर्ण के माथे पर स्वर्ग से फूल बरसने लगे और देवता लोग उनकी प्रशंसा करने लगे। तभी से इस महाव्रती वीर को सब लोग कर्ण के नाम से पुकारते हैं। इन्द्र ने कर्ण का ठगा तो सही, पर इससे कर्ण की बड़ी कीर्ति हुई। उनका यश पहले से भी सौगुना अधिक चारों तरफ फैल गया। कर्ण के इस प्रकार ठगे जाने का वृत्तान्त सुन कर धृतराष्ट्र के पुत्र को दुख और पाण्डवों को कुछ धीरज हुआ। उधर पाण्डवों का हित-साधन करके इन्द्रदेव हँस हुए देवलोक की लौट गये ।

१०-वनवास के बाद अज्ञात वास का उद्योग

इधर दुर्योधन का यज्ञ सिद्ध हो गया; धृतराष्ट्र के पुत्रों की महिमा बढ़ी; कर्ण की वीरता सब पर विदित हो गई; उन्होंने इन्द्र से अमाव शक्ति पाई। उधर कर्ण की दृढ़ शत्रता और इन सब बातों पर विचार करके युधिष्ठिर को बड़ी चिन्ता हुई। अपने भाइयों और द्रौपदी के साथ दुखी मन से वे किसी तरह काम्यक वन में रहने लगे। ___एक दिन द्रौपदी को उन्होंने महर्पि तृणबिन्दु के आश्रम में रख कर पुरोहित धौम्य से कहा कि आप इनकी रक्षा कीजिएगा-इन्हें देखते रहिएगा; किसी बात की तकलीफ न होने पावे। यह करके सब लोग भिन्न भिन्न दिशाओं को शिकार खेलने के लिए निकल गये । इसी समय धृतराष्ट्र के दामाद, सिन्धु देश के राजा जयद्रथ, फिर विवाह करने की इच्छा से अनेक राजों के साथ काम्यक वन से होकर शाल्वदेश को जाते थे। जिस तरह बिजली काले काले बादलों को प्रकाशमान कर देती है उसी तरह पाडवों को प्रिया द्रौपदी उस घने जङ्गल को प्रकाशित करती हुई आश्रम के द्वार पर कदम्ब की एक झुकी हुई डाली के सहारे रात की हवा से काँपती हुई आग की लौ की तरह खड़ी थी। रथ पर सवार राजों ने उसे इसी अवस्था में देखा। वे सब चौंक कर आपस में कहने लगे :- यह क्या मानवी है, या अप्सग है, या दैवी माया है ? काँटों से भरे हुए इस जङ्गल में इसके आने का क्या कारण है ? जयद्रथ द्रौपदी की अलौकिक सुन्दरता पर मोहित होकर कोटिकास्य नाम के एक राजपुरुष से बोले :- हे कोटिक ! जल्द जाकर तुम इसका पता तो लगाओ कि यह कौन है ?