पहला खण्ड ] वनवास के बाद अज्ञातवास का उद्योग __ आश्रम के द्वार पर जाकर कोटिकास्य ने कहा :- हे सुन्दर नेत्रोंवाली ! तुम अकेली इस जङ्गल में क्या करती हो ? अपने पिता और पति का नाम बताकर हमारा कौतूहल निवृत्त करो। हम शिविराज के पुत्र हैं; हमारा नाम कोटिकास्य है। जो सोने के रथ पर सवार हैं, वे त्रिगतराज के पुत्र हैं और यह सुन्दर युवा जो तालाब के पास खड़ा तुमको एकटक देख रहा है, महाबली सिन्धु-सौवीर नरेश जयद्रथ है। उनका नाम तुमने जरूर सुना होगा। हे सुकेशी ! अब तुम अपना परिचय देकर हम लोगों को सन्तुष्ट करो। ___कोटिकास्य को देखते ही द्रौपदी ने कदम्ब की डाल छोड़ दी और दुपट्टे को सँभाल कर तथा उसको कनखियों से देख कर कहा :- हे राजपुत्र ! यहाँ अकेली रह कर तुमसे बातचीत करना मेरे समान स्त्रियों के लिए शिष्टाचार के विरुद्ध है। पर इस समय तुम्हारे प्रश्न का उत्तर देने के लिए और कोई मौजूद नहीं है। तुम अपने सत्कुल का परिचय भी देते हो। इसलिए मैं भी स्वयं अपना परिचय देती हूँ। हे महात्मन् ! मैं गुपदराज की कन्या और फच पाण्डवों की धर्मपत्री द्रौपदी हूँ। मेरे पति इस समय शिकार खेलने गये हैं, पर शीघ्र ही आते होंगे। तब तक आप लोग रथ से उतर कर यहाँ विश्राम करें। महात्मा पाण्डव लोग लौट कर बडी प्रसन्नता से आपका उचित सत्कार करेंगे। यह कह कर द्रौपदी ने, अतिथि-सत्कार की तैयारी करने के इरादे से, पर्णकुटीर में प्रवेश किया। कोटिकास्य ने जाकर जयद्रथ से सब हाल कहा। इस बीच में पापी जयद्रथ द्रौपदी पर अत्यन्त आसक्त हो गया था। उसे उसने अपनी स्त्री बनाने का पक्का इरादा कर लिया। इसलिए वह खुद आश्रम के भीतर जाकर कहने लगा :- हे सुन्दरी ! तुप अच्छी तो हो ? तुम और तुम्हारे पति जिनकी कुशल चाहते हैं वे लोग भी सब अच्छ तो हैं ? द्रौपदी ने भी शिष्टाचार के अनुसार उत्तर दिया : -- हे राजन् ! तुम्हारे राज्य का, खजाने का और सेना का मङ्गल तो है न ? हमारे पति और जिन लोगों की बात तुमने पूछी वे सब कुशल से हैं। यह जल और आसन तथा प्रात:काल के भोजन के लिए यह मुग, फल, मूल आदि लीजिए। पाण्डव लोगों के शिकार खेल कर लौटने पर उचित भोजन का प्रबध कर सकूँगी। निर्लज जयद्रथ ने कहा :- हे सुन्दर मुखवाली ! प्रात:कालीन भाजन की हमारे पास कमी नहीं है। उसके देने की तुम्हारी इच्छा ही से हम तृप्त हो गये । हे सुन्दरि ! हम भोजन करना नहीं चाहते। बिना तुम्हें पाये इस समय हमें शान्ति नहीं मिल सकती। तुम राज्यरहित दरिद्र पाण्डवों के पास रहने के योग्य नहीं। इससे तो यह अच्छा है कि तुम हमारी स्त्री बन कर चलो और सारे सिन्धु-सौवीर राज्य का सुख से भोग करो। जिसका उसे कभी स्वप्न में भी खयाल न था ऐसी ह्रदय को कैंपा देनवाली बात सिन्धुराज के मुँह से सुन कर द्रुपद की पुत्री पाञ्चाली ने भौंहें टेढ़ी करके जयद्रथ को बेतरह धिक्कारा और यह कहकर कि-रे दुरात्मन् ! क्या तुझे शर्म नहीं आती ! दूर हट जाने को तैयार हुई। परन्तु जयद्रथ इससे भी शान्त न हुआ। यह देख कर डर और क्रोध से द्रौपदी कॉप उठी। पर पाण्डवों के आने तक समय बिताने के लिए वह उससे तरह तरह की बातें करने लगी। द्रौपदी बोली :-हे राजन् ! तुम्हारे साथ ऐसा एक भी राजपुरुष नहीं जो किसी को गढ़े में गिरतं देख हाथ पकड़ कर उसे निकाल लेने की चेष्टा न करे। और तुम अच्छे वंश के होने पर भी विपद में पड़े हुए पाण्डवों का इस तरह अपमान करने में सङ्कोच नहीं करते ? अरे मूढ़ ! तुमने मूखों की फा०१७
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