- पुनर्प्रेषित [[
]] १३२ सचित्र महाभारत [पहला खण्ड __ भीम ने कहा:-अरे राजपुत्र ! क्या तुमने इसी साहस पर द्रौपदी को हरने का इरादा किया था ? नौकरों को वैरी के हाथ में देकर क्यों तुम भागते हो ? भीम के रोकने से जयद्रथ न रुका। वह भागता ही गया। पर भीमसेन ने इस वेग से उसका पीछा किया कि शीघ्र ही उसके पास पहुँच गये और उसके बाल पकड़ लिये । फिर उसको उठा कर जमीन पर पटक दिया और लगे धड़ाधड़ मारने । जयद्रथ ने जमीन से जो उठने की चेष्टा की तो भीमसेन ने उसके माथे पर ऐसी लात मारी और छाती पर इस तरह दोनों घुटने रख दिये कि वह अत्यन्त पीड़ित होकर बेहोश हो गया। तब अर्जुन ने फिर कहा :- भाई ! दुःशला के विषय में धर्मराज ने जो बात कही है उसे न भूल जाना। भीम ने कहा :--इम पापी ने द्रौपदी को दुःख दिया है। हम तो इसे मार ही डालते । पर तुम्हारे कहने से छोड़ देते हैं। ___ इसके बाद भीमसेन ने धारदार अर्द्धचन्द्र बाण से जयद्रथ का सिर मुड़ दिया; सिर्फ पाँच चोटियाँ रहने दी। जब उसे होश आया तब उसका धिक्कार करके भीम बोले :- रे मूढ़ ! यदि तू जीना चाहता है तो तुझे सबके सामने हमाग दासत्व स्वीकार करना पड़ेगा। लाचार जयद्रथ को भीमसेन की बात माननी पड़ी। तब ज़मीन पर पड़े हुए सिन्धुराज को उन्होंने खूब जकड़ कर बाँधा और रथ पर चढ़ा लिया। फिर भीम और अर्जुन उसे श्राश्रम में धर्मराज के पास ले गये । युधिष्ठिर ने हँसकर भीमसेन से कहा :- हे भीम ! तुम इसे यथेष्ट दंड दे चुके अब छोड़ दो। भीम ने कहा :--हे महाराज ! यह हमाग दास है । इसलिए इसके मम्बन्ध में जो द्रौपदी कहेगी वही करेंगे। युधिष्ठिर ने फिर प्यार से कहा :- हे भीम ! यदि हमारी बात मानना अपना कर्त्तव्य समझते हो तो इसे छोड़ दो। इस विषय में धर्मराज को उत्कंठित और भीमसेन को भी अटल देखकर द्रौपदी ने कहा :- जब इस दुराचारी ने तुम्हारा दासत्व स्वीकार कर लिया है और पाँच चोटियाँ छोड़ कर इसका सिर मूंड़ दिया गया है तब और दंड देने की जरूरत नहीं। द्रौपदी के कहने से जयद्रथ के बंद खोल दिये गये । वह उठ बैठा और बतरह विह्वल होकर सबके पैरों पर गिर पड़ा-सबके पैर उसने छुए। युधिष्ठिर ने कहा :-तुम दासत्व से छूट गये। ऐसा नीच काम अब कभी न करना । तुम अपने हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सैन्य लेकर अब अपने घर जाव । ईश्वर करे तुम्हारी धर्मबुद्धि बढ़े। इसके बाद सिन्धुराज ने दुःखी मन से लज्जा के कारण सिर झुका कर वहाँ से प्रस्थान किया। पर घर न जाकर वे गङ्गाद्वार गये और वहाँ तपस्या करने लगे। जब कठोर तपस्या से महादेव जी प्रसन्न हुए तब प्रकट होकर उनसे बोले :- पुत्र ! वर माँगो। जयद्रथ ने कहा :-भगवन् ! हम पाँचों पाण्डवों को युद्ध में हराना चाहते हैं। शिव जी बोले :-तपस्या करके अर्जुन ने हमसे पहले ही पाशुपत अस्त्र प्राप्त कर लिया है । इससे उन्हें कोई नहीं जीत सकता। उनके सिवा अन्य पाण्डवों को एक दिन लड़ाई में तुम हरा सकोगे। यह कह कर वे अन्तर्धान हो गये। जयद्रथ भी अपने घर चले गये। सताये हुए पाण्डव लोग काम्यक वन से फिर द्वैत वन चले आये और वहीं रहने लगे।