पहला खण्ड ] अज्ञात वास १३९ महर्षि बृहदश्व की शिक्षा के प्रभाव से युधिष्ठिर जुआ खेलने में बड़े ही निपुण हो गये थे। इससे राजपुरुषों से जुआ में मनमाना धन जीत कर वे भाइयों को बाँट देते थे। राजा की रसोई से पाये हुए तरह तरह के उत्तम भोजनों से भीमसेन सबको तृप्त करते थे। अन्तःपुर में अर्जुन को बहुत इनाम मिला करता था। इससे उनकी भी अच्छी आमदनी थी । सहदेव दूध, दही और घी आदि से तथा नकुल राजमहल से पाये हुए धन के द्वारा सबके सुख की सामग्री इकट्ठी करते थे। पाण्डवों के आज्ञत वास के चौथे महीने में मत्स्य नगर में एक बड़ा भारी उत्सव आरम्भ हुआ। उस समय दानवों के समान बड़े बड़े पहलवान लोग अपना अपना बल दिखाने और परीक्षा देने के लिए चारों तरफ से आये । उनमें से एक सबसे मोटा ताजा पहलवान सबको हरा कर अखाड़े में कूदने और सबको बार बार ललकारने लगा। पर किसी ने भी उसके मुकाबले में उतरने का साहस न किया। तब मत्स्यराज को भीमसेन की बात याद आ गई। उन्होंने उनको लड़ने की आज्ञा दी। उनके प्रचण्ड बाहुबल को देख कर लोग कहीं पहचान न जायँ, इस डर से वे लड़ना न चाहते थे । पर उन्होंने राजा की आज्ञा न मानना अनुचित समझा । इसलिए लड़ने का वे तैयार हो गये। पहले तो उन्होंने विराट को प्रणाम किया; फिर धीरे धीरे अखाई में पहुँच । उनका बलिष्ठ शरीर देख कर सब लोग प्रसन्न हो गये । इसके बाद उन्होंने जीमूत नाम के उस प्रसिद्ध पहलवान को ललकारा । तब दोनां वीगं में युद्ध होने लगा। वे आपस में एक दूसरे को दबाने का अवसर हूँढ़त हुए कभी भुजाओं का आघात करने कभी से मारन, कभी पैर की ठोकर मारते, कभी सिर से मिर लड़ा देन थे। उनके इन आघातों और ठोकरों से बड़ा भयङ्कर शब्द उत्पन्न होता था। अंत को महाबलवान् भीमसम ने उस गर्जन-तर्जन करनेवाले पहलवान को एक-दम पकड़ कर उठा लिया और जमीन पर इतनी जोर से पटका कि उसकी हड़ियाँ तक चूर हो गई। प्रसिद्ध पहलवान जीमूत का हगने से भीमसेन का बहद आदर हुश्रा। तब से राजा विराट भीमसेन को सिंह, बाघ आदि हिंस्र जन्तुओं से अकसर लड़वाते और तमाशा देखते थे। अन्त:पुर की खिड़कियों से रानियाँ भी भीमसेन का अद्भुत बल-विक्रम देखती थीं। वहाँ द्रौपदी को भी जरूर जाना पड़ता था । पर वह डरती थी कि भीमसेन को कहीं कुछ हो न जाय। उससे वह व्याकुल हो जाती थी। उसकी यह बात कभी कभी प्रकट हो जाती थी। इसलिए लोग समझते थे कि वह उस रूपवान रसोइये पर अनुरक्त है। अतएव उस पर पहुधा व्यंग्य वचनों की वर्षा होती थी। नीच नतक-वेश में महावीर अर्जुन को अन्त:-पुरवासिनी स्त्रियों की सेवा करते देख कर भी द्रौपदी को बड़ा कष्ट होता था। ___ शीघ्र ही एक यात और ऐसी हुई कि जिससे अभागिनी द्रौपदी का कष्ट और भी बढ़ गया। रानी का भाई कीचक बड़ा बली था । वह विराट का सेनापति था । वह, और उसके सजातीय, तथा नौकर- चाकर लोग ऐसे पराक्रमी और योद्धा थे कि उनके बिना राज्य की रक्षा होना असम्भव था।..खुद राजा उनसे बहुत डरते थे। इससे मत्स्यराज्य में उन लोगों का प्रभुत्व बहुत बढ़ गया था। वे जो चाहते थे करते थे। एक दिन द्रौपदी की अलौकिक सुन्दरता देख कर सेनापति कीचक उस पर मोहित हो गया और बहन के पास जाकर बोला :-- इस रूपवती स्त्री को विराट-भवन में हमने पहले कभी नहीं देखा। इसने हमारे चित्त को चञ्चल करके हमें बिलकुल ही अपने वश में कर लिया है। इसलिए इसके साथ हमारा विवाह करवा दो। बहन से यह बात कह कर कीचक खुद द्रौपदी के पास गया और बोला :-- है सुन्दरी ! तुम्हारी सी रूपवती स्त्री का दूसरं की सेवा करना उचित नहीं। इससे अच्छा
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