पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/२०७

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दूसरा खरड] शान्ति की चेष्टा १७९ मान्य ही नहीं, आत्मीयं भी हैं। उन्हें हम अपना कुटुम्बी समझते हैं । इसलिए उन्हें आगे बढ़ कर लेने और उनका उचित आदर-सत्कार करने का प्रबन्ध होना चाहिए। हे पुत्र ! रास्ते में उनके ठहरने के लिए खूब सजे हुए विश्राम-स्थान तैयार कराओ। सब काम इस तरह होना चाहिए जिसमें उन्हें किसी प्रकार का कष्ट न हो-जिसमें वे हम पर प्रसन्न हों। भीष्म ने इस बात को बहुत उचित समझा । उन्होंने कहा :-हाँ जरूर ऐसा ही करना चाहिए। यह सुन कर दुर्योधन ने कृष्ण के रास्ते में जगह जगह पर अत्यन्त रमणीय विश्राम-शालायें बनवाई और उनमें अनेक प्रकार के श्रासन, अनेक प्रकार के सुगन्धित पदार्थ और अनेक प्रकार के स्वादिष्ट भोजन और पान आदि की सामग्री रखवा दी। इसके बाद धृतराष्ट्र ने फिर सबको बुला कर विदुर से कहा :- ___ सुनते हैं, कृष्ण इस समय उपप्लव्य नगर से चल कर वृकस्थल में पहुँच गये हैं। वहाँ से रवाना होकर कल प्रातःकाल वे यहाँ आ जायेंगे। जितने यादव हैं, कृष्ण उन सबके शिरोमणि हैं । इससे उनका अच्छी तरह आदर होना चाहिए। इसमें जरा भी त्रुटि न होनी चाहिए । हमने जो कुछ करना निश्चय किया है, सुनिए-अच्छे अच्छे चार घोड़े जुते हुए सोलह रथ, आठ हाथी, एक सौ दास- दासी; इसके सिवा पहाड़ी देशवाले कोमल कोमल कम्बल और चीन देश के मृग-चर्म-यह सब उपहार के रूप में उन्हें भेंट किया जायगा। अपने भाण्डार की विमल कान्तिवाली वे मणियाँ भी हम कृष्ण को देना चाहते हैं जिनका प्रकाश दिन रात एक सा बना रहता है । दुर्योधन को छोड़ कर हमारे और पुत्र उत्तमोत्तम कपड़े और गहने पहन कर रथों पर सवार होकर कृष्ण की पेशवाई करेंगे। जिस रास्ते कृष्ण श्रावेंगे उस रास्ते में खूब पानी छिड़का जाय, जिसमें धूल का नाम न रहे। फिर, वह, दोनों तरफ़, ध्वजा-पताकाओं से सुशोभित किया जाय । दुर्योधन के घर की अपेक्षा दुःशासन का घर अधिक अच्छा है। इससे वही खूब साफ़ करके सजाया जाय । उसी में श्रीकृष्ण ठहराये जायें । हमारे और दुर्योधन के पास रत्न आदि जितने बहुमूल्य पदार्थ हैं उनमें से जो जो चीजें कृष्ण के योग्य हों वे सब उनको देने के लिए उसी घर में रक्खी जायें । विदुर ने कहा :-आपने जो सब तैयारी करने की आज्ञा दी, कृष्ण उसी के नहीं, उससे भी अधिक आदर-सत्कार के योग्य हैं। परन्तु, हमें तो यह मालूम होता है कि ये सब धन-रत्न श्राप प्रीतिपूर्वक सच्चे हृदय से कृष्ण को नहीं देने जाते। हमें तो साफ़ साफ़ देख पड़ता है कि महात्मा कृष्ण को अपने पक्ष में कर लेने के इरादे से रिश्वत के तौर पर आप ये सब चीजें उन्हें देना चाहते हैं। किन्तु, आपकी यह कोशिश बेकायदा जायगी-आपका यह सारा यत्न व्यर्थ होगा। आदर-सत्कार करके और धन- सम्पत्ति देकर आप कृष्ण को पाण्डवों से कभी अलग न कर सकेंगे। कौन नहीं जानता कि कृष्ण को अर्जुन प्राणों से भी अधिक प्यारे हैं ? हे महाराज ! कृष्ण हम लोगों से केवल इतना ही चाहेंगे कि उनके साथ साधारण शिष्टता का बर्ताव किया जाय । जैसा बर्ताव एक भला आदमी दूसरे भले आदमी के साथ करता है वैसा ही बर्ताव उनके साथ किया जाना बस होगा। इससे अधिक आदर-सत्कार करने की वे कभी हमसे आशा न रक्खेंगे। वे दोनों पक्षवालों की मंगल-कामना से यहाँ आ रहे हैं. वे जी से यही चाहते हैं कि दोनों पक्षों का भला हो। वे जो कुछ धर्मोपदेश करें, उसे मान लेने ही से वे समझेंगे कि हमारा बहुत बड़ा आदर हुआ । इसके सिवा वे और कुछ चाहते भी नहीं; और देने से वे लेंगे भी नहीं। दुर्योधन बोले :-विदुर ने जो कुछ कहा, सच है। पाण्डवों से कृष्ण को फोड़ने की कोशिश करना व्यर्थ है। इससे आप जो धन-रत्न कृष्ण को देने की तजबीज कर रहे हैं सेो ठीक नहीं। कृष्ण अवश्य ही उन सब वस्तुओं के पाने के पात्र हैं, इसमें सन्देह नहीं। किन्तु, इस समय वे समझेंगे कि हम लोग, मारे