१८० सचित्र महाभारत [ दूसरा सराव डर के, ये सब चीजें देकर उन्हें प्रसन्न करना चाहते हैं । हम जब उनकी सन्धि-सम्बन्धी बात मानने को तैयार नहीं तब उन्हें रुपये-पैसे और धन-रत्न आदि की भेंट देना मुनासिब नहीं । दुर्योधन की बात सुन कर पितामह भीष्म बोले :- हे धृतराष्ट्र ! तुम चाहे कृष्ण का सत्कार करो, चाहे न करो, वे कभी क्रोध न करेंगे। तुम्हारे अधिक श्रादर करने और बहुत सी बहुमूल्य चीजों की भेंट देने से वे कभी धर्म-मार्ग को न छोड़ेंगे- वे कभी सत्य के पथ से एक पग भी इधर उधर न जायँगे । तथापि उनका निरादर न होना चाहिए; वे निरादर के पात्र नहीं। जो कुछ वे कहेंगे धर्म की बात कहेंगे । उनका कहना करने ही में तुम्हारा हित है। उनकी बात न मानने से कभी तुम्हारा मंगल न होगा। दुर्योधन ने कहा :-हे पितामह ! यह कभी नहीं हो सकता कि इस सारी राज्य-सम्पदा में हम पाण्डवों को भी साझी बनावें और जो कुछ हमें मिले उसी से हम सन्तुष्ट रहें। हम राज्य का बाँट करने के लिए तैयार नहीं । पाण्डवों को अपने वश में कर लेने का एक बहुत ही सहज उपाय इस समय हमारे मन में आया है, सुनिए। बिना कृष्ण की मदद के पाण्डव लोग एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा सकते। इससे यदि इस मौके पर हम लोग कृष्ण को ज़बरदस्ती कैद कर लें तो फिर कभी अर्जुन युद्ध करने का साहस न कर सकेंगे। अधिक तो क्या, ऐसा होने से सारा गज्य अनायास ही हमारे वश में हो जायगा। फिर कोई चूं तक न कर सकेगा। इससे आपको ऐसी चाल चलनी चाहिए जिसमें यह भेद किसी पर जाहिर न हो और बिना किसी विघ्न-बाधा के कृष्ण पकड़ कर बन्दी बना लिये जायें। दुर्योधन की यह महादारुण दुःख देनेवाली बात सुन कर धृतराष्ट्र के हृदय में गहरी चोट लगी। मारे दु:ख के वे व्याकुल हो उठे और बोले :- बेटा! तुम कभी भूल कर भी अब ऐसी बात अपने मुँह से न निकालना। कृष्ण हमारे आत्मीय हैं-हमारे घर के हैं। वे यों ही हमारे प्यारे हैं, फिर इस समय तो वे दूत होकर आते हैं। उन्होंने कभी कुरु-कुल की बुराई नहीं की; कभी कोई काम ऐसा नहीं किया जिससे हम लोगों का अनहित हुआ हो। इससे उनके साथ इस तरह का बुरा व्यवहार करना बहुत बड़े अधर्म की बात होगी। दुर्योधन की बात सुन कर भीष्म को सबसे अधिक क्रोध आया। वे बोले :-हे धृतराष्ट्र! तुम्हारा यह पापी पुत्र हमेशा ही अनर्थ करने की फिक्र में रहता है। आश्चर्य तो इस बात का है कि तुम इसे दण्ड न देकर उलटा इसी के कहने में चलते हो। तुमसे और अधिक क्या कहें, यदि यह दुष्ट दुर्योधन कृष्ण के साथ कोई अनुचित काम करने की चेष्टा करेगा तो इसे निश्चय ही मारा गया समझना। इस दुरात्मा की पाप-पूर्ण बातें हम और अधिक नहीं सुना चाहते। इतना कह कर महात्मा भीष्म मारे क्रोध के कांपते हुए वहाँ से उठ कर चल दिये। इधर वृकस्थल में रात बिताकर सबेरे कृष्ण ने पूजा-पाठ समाप्त किया और हस्तिनापुर चलने की तैयारी करने लगे। वृकस्थल के निवासियों ने उन्हें चारों तरफ से घेर लिया और उनके साथ साथ हस्तिनापुर चले । भीष्म, द्रोण श्रादि महात्मा, और दुर्योधन को छोड़ कर धृतराष्ट्र के सारे पुत्र, कृष्ण को लेने के लिए आगे आये । कृष्ण के दर्शनों के लिए पुरवासी भी हस्तिनापुर से चले। कोई कोई अनेक प्रकार के वाहनों पर सवार होकर निकले; कोई कोई पैदल ही चल दिये। इसके अनन्तर कौरवों से घिरे हुए महात्मा कृष्ण ने नगर में प्रवेश किया। उनके सम्मान के लिए नगर खूब सजाया गया और राजमार्ग अनेक प्रकार के रत्नों से सुशोभित किया गया। घरों की खिड़कियाँ कृष्ण का दर्शन करनेवाली पुर-नारियों से भर गई । जिस मार्ग से कृष्ण पा रहे थे उसमें
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