दूसरा लर] शान्ति की चेष्टा १८१ इतनी भीड़ हुई कि हवा के समान तेज चलनेवाले कृष्ण के घोड़े को चींटी की चाल चलनी पड़ी। धीरे धीरे कृष्ण का रथ राज-महलों के सामने आ पहुँचा। वहाँ वे रथ से उतर पड़े और धृतराष्ट्र के महल में पधारे। एक एक करके तीन पौठ पार करके वे धृतराष्ट्र के पास पहुँचे । उस समय धृतराष्ट्र के पास जितने राजा लोग बैठे थे सबके साथ धृतराष्ट्र अपने आसन से उठ खड़े हुए और कृष्ण का उचित आदर किया। कृष्ण ने बड़ी नम्रता से सबकी पूजा की और उम्र में छोटे बड़े का ध्यान रख कर सबसे यथोचित रीति से मिले। इसके अनन्तर, जो आसन उनके लिए पहले ही से लगा हुआ था उस पर जब वे बैठ गये तब जल आदि उन्हें दिया गया और उनकी पूजा की गई। इस प्रकार सत्कार हो चुकने पर, जिससे जैसा सम्बन्ध था उससे उसी अनुसार हँसी-दिल्लगी और प्रेम-पूर्ण बातचीत करते हुए कुछ देर वहाँ कृष्ण बैठे रहे। वहाँ से कृष्णजी विदुर के घर गये । विदुर महाधर्मात्मा थे। उन्होंने ऐसा अच्छा अतिथि घर आया देख कृष्ण का बहुत ही सत्कार किया और बोले :- हे माधव ! आपके दर्शनों से हमें जितना आनन्द हुआ है उसका वर्णन नहीं हो सकता। श्रादि से अन्त तक पाण्डवों का सारा हाल आपसे सुनने की बड़ी इच्छा है । कृपापूर्वक सब वृत्तान्त कह जाइए । तब कृष्ण ने विदुर को प्रसन्न करके पाण्डवों के कुशल-समाचार विस्तारपूर्वक कह सुनाये। विदुर के घर में अच्छी तरह आराम करके तीसरे पहर वे अपनी बुआ कुन्ती के घर गये । अपने पुत्रों को प्राण से भी अधिक प्यार करनेवाली कुन्ती बहुत दिनों के बाद पुत्रों के परम सहायक कृष्ण को पाकर बड़े प्रेम से उनसे मिली । कृष्ण के गले में हाथ डाल कर एक एक पुत्र का अलग अलग नाम ले लेकर वह रोने लगी। वह कहने लगी :-हाय ! मैं विधवा हो गई; मेरी धन-सम्पत्ति भी नष्ट हो गई; बन्धु- बान्धव भी शत्रता करने लगे; परन्तु इन बातों से मुझे इतना कष्ट नहीं हुआ जितना अपने पुत्रों के वियोग से हो रहा है। मैं दिन रात उनके सोच में मरी जाती हूँ। आज १४ वर्ष हो गये धर्म-परायण युधिष्ठिर को, सब प्रकार की अस्त्र-शस्त्र-विद्या जाननेवाले अर्जुन को, महाबली भीमसेन को, और माद्री के परम- कान्तिमान दोनों पुत्रों को मैंने नहीं देखा । हाय ! इतने दिन तक उन्होंने और उनकी अपेक्षा भी अधिक प्यारी मेरी द्रौपदी ने, नहीं मालूम, कितना क्लेश उठाया है। कुछ भी हो, उन्होंने जो प्रतिज्ञा की थी उसका पालन कर चुके। अब उनके लिए कोई बन्धन नहीं। इसलिए इस समय उन्हें क्षत्रिय-धर्म के पालन में जरा भी सङ्कोच न करना चाहिए। उन्हें इस तरह अपना धर्म पालन करना चाहिए, जिसमें सनाथ होकर भी महापतिव्रता मेरी प्यारी द्रौपदी अनाथ की तरह दुख न पावे । ___ कृष्ण अपनी बुआ कुन्ती को धीरज देते हुए बोले :- हे पाये ! आप तो वीर-माता और वीर-पत्री हैं आपके पति भी वीर थे; आपके पुत्र भी वीर हैं। इससे आपको सुख-दुख सभी कुछ सहन करना पड़ेगा। आपके वीर पुत्रों ने वनवास-काल में जैसा बल-विक्रम दिखलाया है, युद्ध होने पर भी वे वैसा ही बल-पराक्रम दिखलावेंगे। इसमें सन्देह ही क्या है ? थोड़े ही दिनों में आप अपने पुत्रों को पहले ही की तरह सम्पत्तिमान और ऐश्वर्यवान् देखेंगी। यह सुन कर कुन्ती को बहुत कुछ भरोसा हुआ। उसने कहा :- हे कृष्ण ! हम इस बात को अच्छी तरह जानती हैं कि तुम नीति के बहुत बड़े ज्ञाता हो और सब बातों को खूब सोच समझ कर करते हो । जो कुछ तुम करते हो उसमें कभी भूल नहीं होती। अतएव, जैसा तुम कहते हो, मुझे पूरा विश्वास है, सब बात वैसी ही होगी। ____ इसके बाद कुन्ती से बिदा होकर कृष्ण दुर्योधन के घर की तरफ चले ! वहाँ पहुँचने पर, कई फाटक पार करके उन्होंने पर्वत-शिखर की तरह ऊँचे महल की सीढ़ियों पर चढ़ना शुरू किया। महल के भीतर जाकर उन्होंने देखा कि बहुत से राजों के बीच में एक बहुमूल्य आसन पर दुर्योधन विराज रहे
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