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सचित्र महाभारत पहला खण्ड १-वंशावली जिन महाप्रतापी राजा भरत के नाम के प्रभाव से भारतवर्ष और भारत वंश, दोनों, इतने दिनों से प्रसिद्ध हैं और न मालूम कब तक प्रसिद्ध रहेंगे, उनके कुल के आदि-पुरुष का नाम राजा ययाति था। राजा ययाति के जेठे पुत्र का नाम यदु था। पिता ययाति, यदु से अप्रसन्न हो गये थे। इससे उन्होंने यदु को राज्य का अधिकारी नहीं बनाया। इतना ही नहीं, किन्तु ययाति ने शाप देकर यदु की सन्तान को क्षत्रियों के कुल से पतित भी कर दिया। ययाति ने क्रोध में आकर कहा--"जा, तेरे वंश में जो लोग जन्म लेंगे वे क्षत्रिय न कहलावेंगे"। यह सब होने पर भी यदु के वंश ने बड़ा नाम पाया। उसका वंश यादव कहलाया। भोज, वृष्णि, अन्धक आदि वीरों ने इसी यादव वंश में जन्म लेकर अपने अपने नाम की महिमा बढ़ाई । अन्त में परम-पूजनीय, अतुल-पराक्रमी, अनन्त-ऐश्वर्यशाली श्रीकृष्ण ने इस वंश में जन्म लिया। इससे यदुवंश की मान-मर्यादा, किसी भी बात में, किसी क्षत्रिय-कुल की मान-मर्यादा से कम न रह गई। पिता ययाति अपने छोटे पुत्र पुरु ही को सबसे अधिक प्यार करते थे । पुरु भी पिता को प्रसन्न रखने की सदा चेष्टा करते थे । जो बात पिता के सन्तोष का कारण होती थी वही करते थे। जिसमें वे पिता का हित देखते थे उसके करने में कभी पागा पीछा न करते थे। इससे पिता ने पुरु को ही अपना उत्तराधिकारी समझा। ययाति का राज-सिंहासन पुरु ही को मिला। शूरता और वीरता में पुरु के वंश की भी बहुत प्रसिद्धि हुई । इसी पुरु-वंश में राजा भरत उत्पन्न हुए। उनके कारण इस वंश का इतना नाम हुआ कि उसका कभी लोप नहीं हो सकता । आगे चल कर महा बलवान् राजा कुरु इसी वंश में हुए। उनके जन्म से इस वंश का गौरव और भी बढ़ा । तब से इस वंश का नाम कौरव हुश्रा। द्वापर युग के अन्त में कुरु वंश के शिरोमणि महात्मा शान्तनु का जन्म हुआ । शान्तनु के पिता का नाम राजा प्रतीप था । शान्तनु के बड़े होने पर राजा प्रतीप ने उन्हें अपने जीते ही जी, राज्य के सिंहासन पर बिठाया और अनेक प्रकार के अच्छे अच्छे उपदेश देकर, आप राज-पाट छोड़ वन में चले गये । वहाँ वानप्रस्थ होकर अपना समय ईश्वर की उपासना में बिताने लगे।