दूसरा खण्ड] शान्ति की चेष्टा ( १८३ हमारा कोई अनिष्ट करने की चेष्टा करेंगे तो हम उसके लिए भी तैयार हैं। इसमें कुछ भी डरने की बात नहीं । इस प्रकार बातें करते करते कृष्ण कोमल शय्या पर सो गये। प्रात:काल बन्दीजन और वैतालिकों के मधुर मधुर गीतों से महात्मा कृष्ण जगे। उठ कर उन्होंने स्नान किया। जप और होम आदि करके बाल-सूर्य की उन्होंने उपासना की। फिर कपड़े पहन कर बैठे ही थे कि दुर्योधन और शकुनि उनके पास आकर बोले :- ___हे केशव ! महाराज धृतराष्ट्र और भीष्म आदि कौरव, और अन्यान्य राजा लोग सभा में बैठे हुए आपके आने की राह देख रहे हैं। ___कृष्ण ने उन लोगों का अभिनन्दन किया। फिर ब्राह्मणों का सत्कार करके, दारुक सारथि के लाये हुए रथ तर सवार होकर, अपने सेवकों के साथ वे राजसभा को चले। दुर्योधन और शकुनि दूसरे रथ पर सवार होकर उनके पीछे पीछे हो लिये। सभा-भवन के द्वार पर रथ से उतर कर, विदुर और सात्यकि का हाथ अपने हाथ में पकड़े हुए, कृष्ण ने सभा-मण्डप में प्रवेश किया। कर्ण और दुर्योधन उनके आगे, और यादवों के साथ कृतवा उनके पीछे, हो लिये। यदुवंश-श्रेष्ठ कृष्ण के पहुंचते ही छोटे से लेकर बड़े तक सब कौरव अपना अपना आसन छोड़ कर खड़े हो गये । धृतराष्ट्र के उठते ही वहाँ पर जो सैकड़ों राजा बैठे हुए थे, सब एकदम से उठ खड़े हुए। श्रीकृष्ण ने प्रसन्नतापूर्वक सबका अभिवादन किया। परन्तु वे बैठे नहीं। द्वार पर कई ऋषियों को खड़े देख कर उन्होंने भीष्म से कहा :- हे कुरुश्रेष्ठ ! देखिए ये ऋषि द्वार पर खड़े हैं । इनको श्रादरपूर्वक सभा में ले आइए। इनका उचित सत्कार किये बिना किस प्रकार हम बैठ सकते हैं ? यह सुन कर महात्मा भीष्म सभा देखने की इच्छा से आये हुए नारद, करव आदि ऋषियों की यथोचित पूजा करके उन्हें सभा में ले आये। यह देख कर कौरवों के नौकरों ने मणि-मण्डित सोने के आसन लाकर वहाँ रख दिये । ऋषि लोग उन्हीं आसनों पर बिठाये गये। तब सभा के सभासद अपने अपने आसनों पर बैठे । कर्ण और दुर्योधन पास पास एक ही आसन पर बैठे। विदुर कृष्ण के पास उनकी बगल में बैठ गये। इसके अनन्तर सब लोग अपनी अपनी जगह पर चुपचाप बैठे हुए कृष्ण का प्रस्ताव सुनने की उत्सुकता दिखाने लगे। चारों तरफ सन्नाटा छा गया। चतुर-चूड़ामणि कृष्ण तुरन्त समझ गये कि सब लोग हमारे बोलने की राह देख रहे हैं। अतएव गम्भीर वाणी से सभा-भवन को गुन्जायमान करके उन्होंने धृतराष्ट्र से इस प्रकार कहना प्रारम्भ किया :- हे भरत-वंश-शिरोमणि! हमारी समझ में कौरवों और पाण्डवों के बीच सन्धि-स्थापन करके वीरों का वृथा नाश निवारण करना चाहिए । यही प्रार्थना करने के लिए हम आप लोगों के पास आये हैं। इसके सिवा आपको और कोई उपदेश देने की हम जरूरत नहीं समझते। जो कुछ जानने योग्य है, सब आप जानते हैं। विद्या, दया और सरलता आदि गुणों में आपका कुल और सारे राजकुलों की अपेक्षा श्रेष्ठ है। आप इस कुल में प्रधान हैं; राजकाज की डोरी भी आप ही के हाथ में है। अतएव, बड़े दुःख की बात है जो आपके रहते कौरव लोग अनुचित व्यवहार करें। उन्हीं के कारण कुरुकुल पर यह घोर आपदा आनेवाली है । हे महाराज ! आप यदि इस मामले को ठंडा न करेंगे-आप यदि इस विषय में बे-परवाही दिखलावेंगे तो इस इतने बड़े राज्य के जड़ से नष्ट हो जाने का डर है। आपके मन में लाते ही यह विपदा दूर हो सकती है । शान्ति स्थापन करना आपके और हमारे अधीन है। आप कौरवों को शान्त करें, हम पाण्डवों को शान्त करने का भार अपने ऊपर लेते हैं । इस समय कौरव लोग आपके सहायक हैं; शान्ति स्थापति हो जाने से आप पाण्डवों को भी अपना सहायक बनाकर निश्चिन्त मन से आनन्दपूर्वक धर्मार्थ-चिन्ता में निमम रह सकेंगे। हे कुरुवंशावतंस ! पाण्डवों को आधा राज्य
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