पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/२२७

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दूसरा खण्ड] युद्ध की तैयारी १९९ प्रकार के पताके इन्द्रधनुष की बराबरी करने लगे। और और पताका-चिह्नों के बीच में भीष्म का पाँच ताराओं से शोभित तालकेतु, अर्जुन का महा-भीषण कपिध्वज, युधिष्ठिर का सुवर्णमय चन्द्र, दुर्योधन का मणिमय नाग-चिह्न, भीमसेन का सुवर्णसिंह ध्वज, आचार्य द्रोण का कमण्डलु-चिह्नवाला केतु और अभिमन्यु का मणि-काञ्चन-मय मयूर सबसे अधिक प्रकाशित हो कर चमकने लगा। इसके बाद राजा दुर्योधन ने पाण्डवों की सेना की मोरचाबन्दी अपनी मोरचाबन्दी से भी विकट और दृढ़ देखकर द्रोणाचार्य से कहा :- _ हे प्राचार्य ! देखिए, शत्रों ने कैसे अच्छे व्यूह की रचना की है-कैसी अच्छी किलाबन्दी की है। उसकी रक्षा के लिए द्वार पर भीमसेन को रक्खा है। अब वे हमारी फौज पर चाल करने की तैयारी कर रहे हैं। किन्तु, पाण्डवों की सेना कम है, हमारी सेना उससे बहुत अधिक है। अनगिनत योद्धा हमारे लिए प्राण देने को तैयार हैं । इससे चिन्ता की कोई बात नहीं ! हमारे सेनाध्यक्ष व्यूह के हर द्वार पर रहें और आप खुद भीष्म की रक्षा करें। तब महात्मा भीष्म ने दुर्योधन को प्रसन्न करने के लिए सिंहनाद करके अपने शङ्ख को बड़े जोर से बजाया । उसे सुन कर हर एक सेनाध्यक्ष ने अपने अपने विभाग से शङ्ख बजा कर युद्ध शुरू करने के लिए उतावली सूचित की। कौरवों की शङ्खध्वनि सुन कर दूसरी तरफ़ से अर्जुन ने अपना देवदत्त नामक और कृष्ण ने अपना पांचजन्य नामक शङ्ख इतने जोर से बजाया कि सुननेवालों को बहरे हो जाने की शङ्का होने लगी। इनकी इस शङ्क-ध्वनि से कौरवों की सेना को तो त्रास हुश्रा; अपनी निज की सेना का रत्साह बढ़ा। पाण्डवों के सेनाध्यक्षों ने भी अपना अपना शङ्ख बजा कर यह सूचित किया कि मोरचाबन्दी और किलेबन्दी हो चुकी; अब हम युद्ध के लिए पूरे तौर से तैयार हैं । इसके बाद सफेद घोड़े जुते हुए और मणियों से जड़े हुए रथ पर सवार होकर पाण्डवों के सेनापति अर्जुन ने कृष्ण से कहा :- हे वासुदेव ! दोनों सेनाओं के बीच में रथ खड़ा करो, जिससे हम यह निश्चय कर सकें कि किस पक्ष का कौन योद्धा किसके साथ युद्ध करने के योग्य है। इससे युद्ध आरम्भ करने में सुभीता होगा। तब कृष्ण ने रथ को दोनों सेनाओं के बीच में लेजाकर खड़ा किया और कहा :- हे पार्थ ! देखो ये भीष्म, द्रोण आदि योद्धा और कौरव-सेना के सब वीर इकट्ठे हैं। अर्जुन ने दोनों दलों में अपने पितामह, अपने प्राचार्य, अपने मामा, अपने भाई, अपने पुत्र, अपने ससुर, और अपने मित्र आदि आत्मीय जनों को देखा। अपने प्यारे से भी प्यारे और निकट से भी निकट सम्बन्धियों और प्रात्मीय जनों को देख कर अर्जुन का हृदय करुणरस से उमड़ आया। वे उदास और दुखी होकर बोले :- . हे मधुसूदन ! अपने इन आत्मीय जनों को युद्ध करने के इरादे से आया देख हमारा शरीर सन्न और चित्त भ्रान्त हो रहा है। हमारा जी ठिकाने नहीं रहा। गाण्डीव हमारे हाथ से गिरना चाहता है। जिनके कारण मनुष्य संसार में राज्य पाने की कामना करता है उन्हीं कुटुम्बियों और प्रेम-पात्र जनों का नाश करके हम राज्य पाने का उद्योग कर रहे हैं। परन्तु, पृथ्वी की बात जाने दीजिए, यदि हमें त्रैलोक्य का भी राज्य मिलता हो तो भी हम इन लोगों को मारने की इच्छा नहीं कर सकते । ये लोग लोभ से अन्धे हो कर युद्ध करने आये हैं; किन्तु हाय ! हम सब बात अच्छी तरह समझ करके भी यह महापाप करने चले हैं। हम चुपचाप खड़े रहें और ये हमारा सिर उतार लें, तो भी हम अच्छा ही समझेंगे; परन्तु इनके साथ युद्ध करना हम अच्छा नहीं समझते। ___यह कह कर अर्जुन ने अपना धनुष-बाण फेंक दिया और महा शोकाकुल होकर रथ पर चुप- चाप बैठ रहे । तब अर्जुन को इस प्रकार चिन्तित और दया-परवश देख कर कृष्ण ने कहा:-