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दूसरा खण्ड युद्ध का प्रारम्भ २१९ पितामह उन पर शस्त्र नहीं चलात, अर्जुन बार बार शिखण्डी के उत्साह को बढ़ा कर उन्हें उत्तेजित करने लगे। अर्जुन बोले :--- हे शिखण्डी ! इस समय भीष्म का मारने की जी खोल कर चेष्टा करो। इस इतनी बड़ी सेना में तुम्हें छोड़ कर ऐसा एक भी योद्धा नहीं जो इस महान काम को कर सके। यदि तुम्हारी चेष्टा निष्फल गई तो हमारी और तुम्हारी दोनों की बे-तरह हँसी होगी। तब बल के मद से मतवाले से होकर शिखण्डी ने अपने बाणों से भीष्म को तोप दिया । परन्तु पितामह इससे ज़रा भी विचलित नहीं हुए। उन्होंने हँसते हँसते उन सब बाणों को अपने शरीर पर धारण कर लिया। शरीर में इतने बाण छिद जाने पर भी उन्होंने व्यथा के कोई चिह्न नहीं प्रकट किये। उलटा दूने उत्साह से वे पाण्डवों की सेना का नाश करते रहे । दुर्योधन ने देखा कि अर्जुन इस तरह शिखण्डी की रक्षा कर रहे हैं कि किसी भी कौरव-वीर की पहुँच शिखण्डी तक नहीं होती। इसलिए दुर्याधन ने ललकार कर कहा : हे योद्धाओ ! तुम लोग तुरन्त ही अर्जुन पर आक्रमण करी । भीष्म तुम्हारी रक्षा करेंगे। कोई तुम्हारा कुछ भी न कर सकेगा। इम आज्ञा के अनुसार बड़े बड़े राजा-बड़े बड़े बल-विक्रमशाली वीर-अर्जुन पर टूटने के . लिए इस तरह दौड़े जैसे दीपक पर गिर कर जलने के लिए पतंगे दौड़ते हैं। किन्तु अर्जुन के महा-वेग शाली बाणों और अस्त्र-शस्त्रों की मार से विकल होकर कुछ ने तो गिर कर वहीं प्राण छोड़ दिये और कुछ भाग निकले । भीष्म की रक्षा करनेवाले लोग शिखण्डी को मारने की जो चेष्टा करते थे उसे अर्जुन पहले ही की तरह अपने बाणों से व्यर्थ करते रहे । कोई भी शिखण्डी को कुछ भी हानि न पहुँचा सका। ___ इस प्रकार बहुत देर तक युद्ध होता रहा । अन्त में शिखण्डी और दूसरे योद्धाओं के बाणों ने पितामह को बे-तरह घायल कर दिया। उनके शरीर में सब तरफ घाव ही घाव हो गये। इससे उन्हें बहुत पीड़ा होने लगी। उन्होंने जान लिया कि हमारा अन्त काल अब समीप है। तब उन्होंने अपनी रक्षा कर यन करना छोड़ दिया । धनुर्बाण तो उन्होंने रख दिया और तलवार लेकर रथ से उतर पड़े। उस समय पितामह पर अर्जुन को दया आई । उन्होंने शिखण्डी के शिथिल बाणों द्वारा पितामह को बहुत देर तक पीड़ित करना और व्यथा को पहुँचाना व्यर्थ समझा। इसलिए उन्होंने चद्रक नामक एक एक करके पच्चीस बाणों से उनके शरीर को भीतर तक बे-तरह छेद दिया। तब पितामह का अङ्ग काबू में न रहा; हाथ पैर आदि सब शिथिल हो गये । इस दशा को प्राप्त होने पर, बग़ल में खड़े हुए दुःशासन से उन्होंने कहा : हे दुःशासन ! ये बाण, जो हमारे इतने मज़बूत कवच को फोड़ कर शरीर के भीतर चले जा रहे हैं, कदापि शिखण्डी के चलाये हुए नहीं हैं। ये वज्र और ब्रह्म-दण्ड की तरह वेगवाले अत्यन्त असह्य शर, जो हमारे शरीर की हड्डियों तक को तोड़ कर हमें बे-तरह विकल कर रहे हैं, शिखण्डी के धनुष से कभी नहीं छूट सकते । ये अत्यन्त क्रुद्व फुफकारते हुए विषधर नाग के समान तीर, जो हमारे मर्मस्थानों के भीतर प्रवेश करके हमारा प्राण ले रहे हैं, अर्जुन के गाण्डीव धन्वा से निकले हुए हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं । गाण्डीव को छोड़कर और कोई हमें ज़मीन पर नहीं गिरा सकता। यह कहते हुए वृद्ध पितामह धीरे धीरे ज़मीन पर गिर गये। किन्तु उनके शरीर में इतने बाण छिदे हुए थे कि वह जमीन को नहीं छू गया। वीरों के योग्य शर-शय्या पर इस समय पितामह सो रहे हैं। हे महाराज ! इस महावीर के शरीर के साथ हम लोगों का सारा उत्साह नष्ट हो गया । सूर्य के समान तेजस्वी इस महात्मा के साथ हमारी सारी आशा धूल में मिल गई।