सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/२६४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२३२ सचित्र महाभारत [ दूसरा खयर अभिमन्यु का धनुष काट डाला, किसी ने उनके सारथि का वध किया, किसी ने उनके घोड़ों को मार गिराया, किसी ने उनके चलाये हुए अस्त्र-शस्त्रों को छेद कर व्यर्थ कर दिया। यह हो चुकने पर द्रोण, कर्ण, कृप, अश्वत्थामा और कृतवर्मा, दया और धर्म दोनों छोड़ कर उस बालक पर एक ही साथ हथियार चलाने लगे। तब अभिमन्यु ढाल-तलवार लेकर बे-घोड़ों के रथ से कूद पड़े। उन्हें अपनी तरफ तलवार लिये हुए दौड़ते देख द्रोण ने उनकी तलवार और कर्ण ने उनकी ढाल काट डाली। एक एक करके जब अभिमन्यु के सारे अस्त्र कट गये तब बचा हुआ अकेला एक चक्र लेकर बड़ी निर्भयता के साथ वे द्रोण पर दौड़े। उस समय वीरों से घिरे हुए, रुधिर से लदफद, थोड़ी उम्र के कुमार अभिमन्यु के रूप ने बहुत ही अपूर्व शोभा धारण की। कौरवों के पक्षवाले राजा लोग उस दिव्य तेजस्वी बालक को देख कर घबरा गये और सबने एक ही साथ अत्रों की वर्षा करके अभिमन्यु के चक्र के टुकड़े टुकड़े कर डाले। उस समय दुःशासन के पुत्र ने हाथ में गदा लेकर अभिमन्यु पर आक्रमण किया और उनके माथे पर गदा मारी। सैकड़ों-हजारों पेड़ों को जड़ से उखाड़ने के बाद बन्द होनेवाले प्रचण्ड पवन की तरह, हाथी-घोड़े-रथसहित अनगिनत वीरों को यमालय भेज कर, पौर्णमासी के चन्द्रमा के समान मुख- वाले अभिमन्यु ने उस गदा की एकाएक चोट से भूमि पर गिर कर प्राण छोड़ दिये। उस समय कौरवों की सेना की आनन्द-सूचक ध्वनि आकाश फाड़ने लगी। उसे सुन कर पाण्डवों ने अभिमन्यु की महाशोचनीय मृत्यु का समाचार जाना। इस पर, जब सैनिक लोगों ने युधिष्ठिर के सामने ही भागने की ठानी तब युधिष्ठिर ने कहा :- हे वीरो ! शत्रुओं की असंख्य सेना में अकेले पड़ जाने पर भी महाबाहु अभिमन्यु, युद्ध से मुँह न मोड़ कर, क्षत्रियोचित परम गति को प्राप्त हुए हैं। तुम्हें भी उन्हीं का अनुकरण करना चाहिए-तुम्हें भी उन्हीं का ऐसा व्यवहार करना चाहिए । भागना मत।। यह सुन कर पाण्डवों के पक्षवाले योद्वाओं को बड़ी लज्जा लगी। उन्होंने बेढब शूरवीरता दिखाई, वे इतने साहस से लड़े कि कौरवों के पैर लड़ाई के मैदान से उखड़ गये। उस समय दिन और रात की सन्धि उपस्थित हो गई-शाम होने को आ गई । भगवान सूर्या सारे अस्त्र-शस्त्रों की प्रभा हरण करके, लाल कमल के समान शरीर का रंग बनाये हुए, अस्ताचल पर्वत की चोटी पर चढ़ गये । इससे दोनों पक्षों की सेना, जो दिन भर युद्ध करते करते थक गई थी, विश्राम करने गई । देखते देखते युद्ध का मैदान खाली हो गया। अभिमन्यु की मृत्यु से पाण्डव वीरों को बड़ा दुःख हुआ। अपने अपने रथ, कवच और धनुष छोड़ कर वे लोग युधिष्ठिर के चारों तरफ़ बैठ गये। सबके मुँह पर बे-तरह उदासीनता छाई हुई थी। धर्मराज उन्हें देख कर और भी विकल हो उठे और विलाप करने लगे :- हाय ! हमारी ही आज्ञा से महावीर अभिमन्यु ने चक्रव्यूह के भीतर घुस कर प्राण त्याग किया। उस बालक को उतना बड़ा काम सौंप कर हम लोग उसकी रक्षा न कर सके। पुत्र को प्राणों से भी अधिक प्यार करनेवाली सुभद्रा और भाई अर्जुन को आज हम कैसे मुँह दिखावेंगे! आज न हमें जीत अच्छी लगती है और न राज्य की प्राप्ति ही अच्छी लगती है। स्वर्ग भी आज हमें सुखकर नहीं मालूम होता। . जिस समय युधिष्ठिर इस तरह धीरज छोड़ कर विलाप कर रहे थे उसी समय कृष्ण द्वैपायन पाण्डवों के शिविर में आकर उपस्थित हुए। उनकी यथोचित पूजा करके युधिष्ठिर ने उन्हें श्रादर-पूर्वक बिठाया। फिर शोक से व्याकुल होकर उन्होंने युद्ध का सारा हाल कह सुनाया। वे बोले :-